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________________ ८२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ५४१ विवेचनामृत द्रव्यों के और गुणों के स्वभाव स्वतत्त्व को परिणाम कहते हैं । प्रस्तुत वर्तमान पञ्चम अध्याय के सूत्र २२-३६ इत्यादि से परिणाम शब्द कहकर आए। हैं। उसका वास्तविक अर्थ क्या होता है। उसको शास्त्रकार नीचे प्रमाणे समझाते हैं * बौद्धदर्शन क्षणिकवादी होने से वस्तु-पदार्थ मात्र को क्षणस्थायी (निरन्वय विनाशी, क्षणविनाशी) मानता है। इसलिए इनके मन्तव्यानुसार परिणाम का अर्थ उत्पन्न होकर के सर्वथा विनष्ट-नष्ट होना है। विनाश-नाश के पश्चात् उस वस्तु-पदार्थ का कोई भी तत्त्व अवस्थित रूप नहीं रहता है। अर्थात्-बौद्धदर्शन प्रत्येक वस्तु को क्षणविनाशी मानता है । * नैयायिक इत्यादि दर्शनवाले गुण तथा द्रव्य को एकान्त भेदरूप से ही मानते हैं। अर्थात्-द्रव्य और गुण को सर्वथा भिन्न मानने वाले न्यायदर्शन इत्यादि भेदवादी दर्शनों के मत में अविकृत द्रव्य में गुणों की उत्पत्ति वा विनाश वे परिणाम हैं। ____ उस परिणाम का फलितार्थ सर्वथा अविकारी (विकार भाव को नहीं होने वाले) द्रव्य में गुण का उत्पाद तथा व्यय होना है । उक्त दोनों पक्ष तथा श्रीजैनदर्शन के मन्तव्यानुसार परिणामस्वरूप के सम्बन्ध में क्या विशिष्टता-विशेषता है, उसको इस सूत्र द्वारा नीचे प्रमाणे बताते हैं । श्रीजैनदर्शन भेदाभेदवादी होने से परिणाम का अर्थ उक्त दोनों प्रकार के अर्थों से भिन्न ही कहता है। श्रीजनदर्शन की दृष्टि से परिणाम यानी स्वजाति के स्वरूप के त्याग बिना वस्तु में (द्रव्य में या गुण में) होता हुआ विकार द्रव्य के गुण प्रतिसमय विकार को (अवस्थान्तर को) पाते हुए भी उसके मूलस्वरूप में किसी प्रकार का फेरफार नहीं होता है। अर्थात्-किसी भी द्रव्य का गुण ऐसा नहीं है कि जो सर्वथा अविकृत रह सके। विकृत अर्थात्-अन्य दूसरी अवस्था को प्राप्त करता हुआ कोई भी द्रव्य या गुण अपनी मूल जाति का (अर्थात्-स्वभाव का) परित्याग नहीं करता है। किन्तु निमित्त पाकर के पृथग्-भिन्न अवस्था को प्राप्त हो, यही द्रव्य और गुण का परिणाम है। जीव-आत्मा मनुष्य, देव, पशु, पक्षी आदि किसी भी अवस्था में हो किन्तु वह अपने प्रात्मत्व (चैतन्य) का परित्याग नहीं करता है। इसी माफिक उसके गुण तथा पर्याय में भी चेतनत्व भाव रहता है । ज्ञानरूप साकार उपयोग हो या दर्शनरूप निराकार उपयोग हो, घटविषयकज्ञान हो या पटविषयकज्ञान हो, किन्तु परिवर्तन कदापि नहीं होता है। इसलिए वह अपरिवर्तनशील है। एवं
SR No.022534
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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