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________________ ३।११ ] तृतीयोऽध्यायः (२) इषु-धनुष पर बाण रखने के स्थान के समान भरतक्षेत्र की उत्तर और दक्षिणमध्यवर्ती जो रेखा है, उसे इषु' कहते हैं। उसका प्रमाण भी उपर्युक्त के अनुसार ही जानना चाहिए । अर्थात्-५२६१ योजन उसका प्रमाण है। (३) धनकाष्ठ-धनष की लकडी के समान ही समद्र के समीपवर्ती परिधिरूप जो रेखा है, उसे 'धनुकाष्ठ' कहते हैं। उसका प्रमाण १४५००१६ योजन से कुछ अधिक है। अर्थात्-चौदह हजार पाँच सौ योजन और एक योजन के २८ भागों में से ११ भाग से कुछ अधिक है। भरतक्षेत्र का संक्षिप्त वर्णन : षट्खण्ड-इस भरतक्षेत्र के छह खण्ड हैं। इसके तीन भाग विजयाध के उत्तर में और तीन भाग दक्षिण में हैं। भरतक्षेत्र के मध्यभाग में एक वैताढय नाम का पर्वत है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा है। इसका पूर्व भाग पूर्व समुद्र में और पश्चिम भाग पश्चिम समुद्र में प्रविष्ट है । सवा छह योजन पृथ्वी के भीतर है तथा पचास योजन उत्तर-दक्षिण चौड़ा-पहोला एवं पच्चीस योजन ऊँचा है। इस भरतक्षेत्र के दक्षिणार्ध और उत्तरार्ध ये दो भाग पड़े हैं। हिमवन्त पर्वत के पद्मद्रह से निकली हुई और वैताढय पर्वत को भेद करके पूर्व-पश्चिम लवणसमुद्र में मिली हुई क्रमशः गंगा और सिन्धु ये दो नदियाँ बहती हैं। इससे इसी भरतक्षेत्र के षट्खण्ड यानी छह भाग होते हैं। इन षट्खण्डों में जो मध्यखण्ड है, उसके मध्य भाग में अयोध्या नगरी है। इस खण्ड में साढ़े पच्चीस पार्यदेश हैं, इसके अलावा अन्य सभी जो देश हैं, वे अनार्यदेश हैं। अन्य पाँच खण्ड भी अनार्य हैं। मात्र मध्यखण्ड में रहे हए पार्यदेशों में ही श्री तीर्थंकर भगवन्त, चक्रवर्ती, वासुदेव तथा बलदेव इत्यादि श्रेष्ठ पुरुष उत्पन्न होते हैं। वैताढ्य पर्वत का माप : वैताढ्य नामक पर्वत का माप पचास योजन पहोला, पच्चीस योजन ऊँचा तथा छह योजन और एक गाउ पृथ्वी में गहरा है। * नौ कूट- इस वैताढ्य नामक पर्वत पर नौकूट यानी नौ शिखर आये हुए हैं। उनमें पहला सिद्धायतन नामक कूट पूर्व समुद्र के पास आया है और शेष पाठ कूट पश्चिम समुद्र के पास सिद्धायतन नामक कट पर एक सिद्धायतन-शाश्वत जिनचेत्य यानी जिनमन्दिर है, जिसमें अष्टोत्तर शत यानी १०८ शाश्वत जिन-मत्तियाँ-जिन-प्रतिमाएँ हैं। शेष रहे हए सभी शिखरों पर एक-एक महान रत्नमय प्रासाद है। जब इन शिखरों के स्वामी देव अपनी राजधानी से यहाँ आते हैं तब प्रासाद में सानन्द रहते हैं। विद्याधरों का निवास : वैताढ्य पर्वत पर समभूतला पृथ्वी से ऊँचे दश योजन छोड़कर तथा वैताब्य पर्वत जितनी ही लम्बी एक मेखला दक्षिण दिशा में और एक मेखला उत्तर दिशा में है। इन दोनों मेखलाओं
SR No.022533
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1995
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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