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________________ २२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे उत्तर-इन देवों की रुचि पापकर्म में ही हुमा करती है। यद्यपि ये असुरकुमार गति की अपेक्षा से देव हैं और इनके अन्य देवों की भाँति मनोज्ञ विषय भी विद्यमान हैं, फिर भी इनको उन विषयों में इतनी रुचि नहीं होती, जितनी कि उक्त अशुभ कार्यों को करने की होती है। इसके अनेक कारण हैं। इनके मायादि तीनों ही शल्य पाये जाते हैं, इतना ही नहीं किन्तु शल्यों के साथ-साथ तीव्र कषाय का उदय भी रहता है। फिर इनके भावों में जो दोष लगते हैं, उनकी आलोचना भी नहीं करते, तथा इन्होंने पूर्वजन्म में वैसा करने का यत्न भी नहीं किया है । पूर्वभव में जो आसुरी-गति का बन्ध किया है, वह आलोचनारहित भावदोषों के कारण ही किया है। ये विचारशील नहीं होते, इनको इतना विवेक नहीं होता कि यह अशुभ कार्य है और करने लायक नहीं है। इस बात पर कभी विचार भी नहीं करते। जिस पुण्यकर्म का इन्होंने पूर्वजन्म में बन्ध किया है, वह अकुशलानुबन्धी है। उनका पूर्वबद्ध कर्म और तदनुसार उनका स्वभाव ही ऐसा होता है कि जिससे दूसरों को लड़ता हुआ या मरता पिटता तथा दुःखी होता हुआ देखकर उन्हें अति आनन्द आता है। इसीलिए वे नरक के जीवों को असह्य अत्यन्त ही दुःख देते हैं। [२] प्रश्न-नरक के जीव इतने अधिकतर असह्य दुःखों को कैसे सहन कर लेते हैं ? और यन्त्रपीड़नादि समान दु:खों से उनका शरीर विशीर्ण क्यों नहीं होता? यदि हो जाता है, तो शरीर के विशीर्ण होने पर उनकी मृत्यु क्यों नहीं होती? उत्तर–अनेक प्रकार के प्रति तीव्र और अमनोज्ञ दुःखों को निरन्तर भोगते हुए भी उन नरक के जीवों का असमय में मरण नहीं होता। वे इन दुःखों से प्रति घबरा कर मरना ही चाहते हैं। फिर भी निजायुष्य कर्म की स्थिति जब तक पूर्ण नहीं होती तब तक उनका मरण नहीं हो सकता। अतएव आयुष्यपर्यन्त उनको उक्त दुःखों को निरन्तर भोगना ही पड़ता है। अवश्य भोग्य कर्म के वश में पड़कर वे उक्त दुःखों को भोगते ही हैं तथा उस कर्म के निमित्त से ही उनका शरीर यन्त्र-पोड़नादिक दुःखों या उपघातों से विशीर्ण होकर भी तत्काल ज्यों-का-त्यों मिल जाता है; अपने आप जुड़ जाता है। ___नरकों में उपर्युक्त परस्परोदीरित, क्षेत्रस्वभावोत्पन्न तथा परमाधामी असुरोदीरित इन तीन प्रकार के दुःखों में से दो प्रकार के दुःख तो सभी सातों नरकों के जीवों को हुआ करते हैं, किन्तु परमाधामी असुरोदीरित दुःख पहली रत्नप्रभा, दूसरी शर्कराप्रभा और तीसरी वालुकाप्रभा इन तीन नरकभूमियों के नारकी जीवों को ही होते हैं । (३-५) * नारकारणां आयुष्योत्कृष्टस्थितिः * ॐ सूत्रम्तेष्वेक-त्रि-सप्त-दश-सप्तदश-द्वाविंशति-त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाः सत्त्वानां परा स्थितिः ॥३-६ ॥ * सुबोधिका टीका * पूर्वोक्तषु सप्तसु नरकेषु जन्मधारिणां नारकाणां प्रायुष्योत्कृष्टप्रमाणं यथा
SR No.022533
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1995
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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