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________________ ४।२२ ] चतुर्थोऽध्यायः [ ५१ (२) प्राहार-प्रोजाहार, लोमाहार तथा प्रक्षेपाहार (कवलाहार) इस तरह पाहार के तीन भेद हैं। * प्रोजाहार-उत्पत्ति के प्रथम समय से शरीर-पर्याप्ति की निष्पत्ति तक (अर्थात्मतान्तर से स्वयोग्य सर्वपर्याप्ति की निष्पत्ति पर्यन्त) ग्रहण कराता पुद्गलों का आहार वह 'प्रोजाहार' कहा जाता है। * लोमाहार-शरीर पर्याप्ति (मतान्तरे स्वयोग्य पर्याप्ति) पूर्ण हो जाने के पश्चात् स्पर्शनेन्द्रिय (चमड़ी-चामड़ी) द्वारा ग्रहण कराता पुद्गलों का आहार वह 'लोमाहार' कहा जाता है। * प्रक्षेपाहार-कोलिया से ग्रहण होने वाले आहार को प्रक्षेपाहार अर्थात-कवलाहार कहा जाता है। देवों के प्रोजाहार और लोमाहार इस तरह दो प्रकार का आहार है। यहाँ पर देवों के आहार का जो नियम कहा हुआ है, वह लोमाहार के प्राश्रयी है। इस सम्बन्ध में ऐसा नियम है कि दस हजार वर्ष आयुष्य वाले देव एक-एक दिन के अांतरे आहार ग्रहण करते हैं। पल्योपम के आयुष्य वाले देव पृथक्त्व दिन (२ से ६ की संख्या को पृथक्त्व कहते हैं) में एक बार पाहार करते हैं। सागरोपम आयुष्य वाले देवों के सम्बन्ध में यह नियम है कि जितने सागरोपम का वे उतने ही हजार वर्षों में एक बार अाहार लेते हैं अर्थात-ग्रहण करते हैं। जैसे-एक सागरोपम की आयुष्य वाले एक हजार वर्ष तथा दो सागरोपम की आयुष्य वाले दो हजार वर्ष में एक बार पाहार ग्रहण करते हैं। इस तरह आगे में भी जानना। प्रश्न-लोमाहार प्रत्येक समय होता रहता है। तो फिर देवों में उक्त अन्तर किस तरह घट सकता है ? उत्तर-लोमाहार के दो भेद हैं। एक आभोग लोमाहार और दूसरा अनाभोग लोमाहार। * जानते हुए संकल्पपूर्वक जो लोमाहार किया जाता है वह प्राभोग लोमाहार कहा जाता है। जैसे-शीतऋतु में मनुष्यादि प्राणी ठण्ड को दूर करने के लिए सूर्य आदि के उष्ण पुद्गलों का सेवन करते हैं। ॐ अजानते हुए बिना इरादे के जो लोमाहार होता है, उसे अनाभोग लोमाहार कहते हैं। जैसे-शीतऋतु में शीतल तथा उष्णऋतु में उष्ण पुद्गल स्पर्शेन्द्रिय-चमड़ी (चामड़ी) द्वारा देहशरीर में प्रवेश करते हैं। इसी से शीतऋतु में जल-पानी अल्प वापरते हुए भी पेशाब अधिक होता है तथा ग्रीष्म ऋतु में जल-पानी अधिक वापरते हुए भी पेशाब अति अल्प होता है। अनाभोग लोमाहार प्रतिसमय होता ही रहता है, पाभोग लोमाहार विशेष समय ही होता है। यहाँ देवों में आहार का अन्तर आभोग रूप लोमाहार की अपेक्षा से है। देवों को जब आहार की इच्छा होती है तब उनके पुण्योदय से मन से कल्पित आहार के शुभ पुद्गल स्पर्शेन्द्रिय द्वारा देह-शरीरपने परिणमते हैं। देह-शरीररूपे परिणमते हुए वे पुद्गल देह-शरीर को पुष्ट करते हैं और तृप्ति हो जाने से वे देव हर्ष-प्रानन्द-आह्लाद का अनुभव करते हैं। देवों में मनुष्यों की भांति प्रक्षेपाहार-कवलाहार नहीं होता है।
SR No.022533
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1995
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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