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________________ ४११० ] चतुर्थोऽध्यायः [ १५ समय अपने मन के संकल्प मात्र से ही वे परमप्रीति को प्राप्त होते हैं। इनको देवियों के स्पर्श या रूप देखने की अथवा मधुर गीतगानादि सुनने की भी आवश्यकता नहीं रहती है। ___ यहाँ पर इतना ध्यान रखना अति आवश्यक है कि, देवियों की उत्पत्ति का स्थान पहला सौधर्म देवलोक तथा दूसरा ऐशान देवलोक ही है। तथापि वे कामवासना-विषयसूख की उत्सूकता के कारण या उन देवताओं को अपनी ओर आदरशील जानकर तीसरे इत्यादि देवलोकों में रहे हए देवों के पास दैवी शक्ति से स्वयमेव पहुँच जाती हैं, और उनकी इच्छा पूर्ण करती हैं। सौधर्म देवलोक में तथा ईशान देवलोक में दो प्रकार की देवियाँ होती हैं। परिगृहीता और अपरिगृहीता। उनमें देव की पत्नी तरीके रही हुई देवियाँ परिगृहीता कही जाती हैं, तथा सर्व सामान्य अर्थात् सर्व देवों के उपभोग में आने वाली देवियाँ अपरिग्रहीता कही जाती हैं। अपरिगृहीता देवियाँ ऊपर के देवलोक के देवों के संकल्प मात्र से ही उस देव के पास देवी शक्ति से उपस्थित होती हैं, तथा उनकी इच्छाएँ पूर्ण करती हैं। सारांश यह है कि* पहले और दूसरे देवलोक के देव काया से मैथुन सेवन करते हैं । * तीसरे और चौथे देवलोक के देव स्पर्श से मैथुन सेवन करते हैं । * पाँचवें और छठे देवलोक के देव देवियों के रूप-दर्शन से मैथुन सेवन करते हैं। * सातवें और आठवें देवलोक के देव देवियों के शब्द-श्रवण से मैथुन सेवन करते हैं । * नौवें, दसवें, ग्यारहवें और बारहवें देवलोक के देव मन से मैथुन सेवन करते हैं। इस तरह मैथुन संज्ञा के उदय से देवों में भी कामवासना-विषयवासना होती है। उनमें नीचे-नीचे के देवों में विशेष-विशेष होने से उसको शान्त करने के लिए अधिक यत्न तथा सामग्री की आवश्यकता रहती है। किन्तु ऊपर-ऊपर के देवों में विषयवासना अल्प-अल्प होने से उसकी शान्ति अल्प प्रयत्न से हो जाती है । (४-६) . * मैथुनसेवनस्याऽभावः * 卐 मूलसूत्रम् परेऽप्रवीचाराः ॥४-१०॥ * सुबोधिका टीका * पूर्वं वैमानिकदेवेषु कल्पोपपन्नदेवानां प्रवीचारकाणां वर्णनं कृतम् । कल्पोपपन्नेभ्यः परे देवा अप्रवीचाराः भवन्ति । अल्पसंक्लेशत्वात् ते च स्वस्थाः भवन्ति शीतीभूताः भवन्ति । पञ्चविध-प्रवीचारोद्भावादपि प्रीतिविशेषाद् अपरिमितगुणप्रीतिप्रकर्षाः परमसुखतृप्ताः भवन्ति ।
SR No.022533
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1995
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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