SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६ ] चतुर्थोऽध्यायः [ १३ सारांश यह है कि-भवनवासी देवों से लेकर ऐशान स्वर्ग तक के देवों के कायप्रवीचार है। वे देह-शरीर द्वारा हो मैथुन-विषयसेवन में प्रति अनुरक्त-मग्न रहने वाले तथा उसका पुनः सेवन करने वाले हैं। क्योंकि, मैथुन संज्ञा के उनके परिणाम अतिशय तीव्र रहा करते हैं। इसलिए वे देह-शरीर के संक्लेश से उत्पन्न हुए तथा सर्वाङ्गीण स्पर्श-सुख को मनुष्यों की भाँति पाकर ही प्रीति क। प्राप्त हुआ करते हैं। देवियों के अस्तित्व के विषय में यहाँ पर कोई उल्लेख नहीं किया गया है। "व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः" इस सिद्धान्त के अनुसार उसे आगम के व्याख्यान से जानना चाहिए। आगमशास्त्र में कहा है कि-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा सौधर्म-ऐशान कल्प में ही देवियाँ जन्म के द्वारा उत्पन्न होती हैं, इसके आगे नियमात् उत्पन्न नहीं होती हैं। अतएव जन्म की अपेक्षा देवियों का अस्तित्व ऐशान कल्प पर्यन्त ही है। अन्य प्रकार के देव वे बताये हैं, जिनके देवियों का सद्भाव तो नहीं है, किन्तु प्रवीचार (मैथुनसेवन) की सत्ता पाई जाती है। उनके मथुनसेवन किस तरह से होता है, यह आगे के सूत्र में कहते हैं ।। (४-८) । 卐 मूलसूत्रम्शेषाः स्पर्श-रूप-शब्द-मनःप्रवीचारा द्वयो योः ॥४-६॥ * सुबोधिका टीका के अत्र ये च त्रिविधाः देवाः वरिणताः तेषु ये अदेवीकाः सप्रवीचाराः, तेषां वर्णनं क्रियते - शेषशब्देनाभिप्रायः कल्पोपपन्नदेवेषु सौधर्मेशानस्वर्गदेवान् विहाय शेषाः । ऐशानादूवं कल्पोपपन्नाः देवाः द्वयोर्द्व यो: कल्पयोः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचाराः भवन्ति । ते च यथा सनत्कुमार-माहेन्द्रयोः देवान् मैथुनसुखप्रेप्सूनुत्पन्नास्थान् विदित्वा देव्योपतिष्ठन्ते । नियोगिन्यः देव्यः स्वयमेवोपतिष्ठन्ते । ताः स्पृष्ट्वैव च प्रीतिसुखमुपलभन्ते । तेषां वासनाशा तेनैव विनिवृत्ता भवन्ति । ___तथैव ब्रह्मलोकस्य लान्तककल्पस्य वा देवान् एवंभूतोत्पन्नास्थान् ज्ञात्वा देव्यः प्रदीप्तानि स्वभावद्योतितानि सर्वाङ्गसुन्दराणि शृङ्गारोदाराभिजाता कारविलासानि प्रोज्ज्वलवेषभूषाभरणयुक्तानि स्वस्य रूपाणि प्रदर्शयन्ति । तानि दृष्ट्वैव ते सन्तुष्टिमुपगम्यन्ते निवृत्तास्थाश्च भवन्ति । तथा च महाशुक्र-सहस्रारयोः देवान् उत्पन्नप्रवीचारस्थान् ज्ञात्वा देव्यः श्रुतिविषयसुखानि अत्यन्ताकर्षकशृङ्गारैः हावभावविलासयुक्त-कटाक्षविक्षेपणैः हसितकथितनीतशब्दान् उदीरयन्ति । तान् शब्दान् श्रुत्वा प्रीति सन्तुष्टि प्राप्यन्ते ते देवाः ।
SR No.022533
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1995
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy