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________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ४।४ (२) सामानिक-जो इन्द्र के समान ऋद्धि वाले तथा पिता, गुरु और उपाध्याय आदि के समान सम्मान्य महत्त्व या महिमा वाले हों अर्थात् इन्द्र को भी आदरणीय एवं पूजनीय हों (केवल इन्द्रत्व उनमें नहीं होता) ऐसे वे देव सामानिक कहे जाते हैं। (३) त्रास्त्रिश-जो मन्त्री या पुरोहित का काम करते हैं वे देव त्रास्त्रिश कहलाते हैं। अर्थात- इन्द्र को सलाह देने वाले मन्त्री तथा शान्तिक-पौष्टिक कर्म द्वारा प्रसन्न रखने वाले पुरोहित के समान देव त्रायस्त्रिश कहे जाते हैं। भोगों में अति आसक्त रहने से उनको दोगुदक भी कहते हैं। १) पारिषद्य-जो मित्र के समान हैं, या सभासदों के स्थानापन्न हैं, उन देवों को पारिषद्य कहते हैं। अर्थात्-जो इन्द्र की सभा के सभ्य हैं, वे इन्द्र के मित्र भी होते हैं। तथा इन्द्र को समय-समय पर विनोद आदि द्वारा आनन्द प्रदान करते हैं। (५) आत्मरक्ष-शस्त्र-हथियार लिये हुए पीठ की तरफ रक्षा करने के लिए जो खड़े रहते हैं, तथा स्वामी की सेवा में भी सदा सन्नद्ध रहा करते हैं, ऐसे अङ्गरक्षकों के समान जो देव होते हैं, उनको प्रात्मरक्ष-प्रात्मरक्षक कहते हैं। अर्थात्-इन्द्र की रक्षा के लिए अपने अंग पर कवच धारण कर, शस्त्र-हथियार युक्त इन्द्र के पीछे खड़े रहने वाले देव। यद्यपि इन्द्र को किसी प्रकार का भय होता नहीं, तो भी इन्द्र की विभूति बताने के लिए तथा अन्य देवों पर भी प्रभाव डालने के लिए प्रात्मरक्षक देव होते हैं। (६) लोकपाल–जो सरहद भूमि की चोर इत्यादिक से रक्षा करने वाले चोकियातकोतवाल के तुल्य हैं, उनको लोकपाल कहते हैं। (७) अनीक-सैन्य-लश्कर तथा सैनिक, सेनाधिपति । जो सेनाधिपति के समान हैं, उनको अनीकाधिपति कहते हैं। (८) प्रकीर्णक-जो नगरवासी के समान हैं-प्रजा के स्थानापन्न हैं, उनको प्रकोरर्णक कहते हैं। (६) प्राभियोग्य-जो दास-नौकर-सेवक के समान हैं, उनको पाभियोग्य कहते हैं। (१०) किल्बिषिक-जो शूद्र यानी नीच जाति के समान हैं, अर्थात् नगर के बाह्य रहने वाले चाण्डालादि के तुल्य हैं, उनको किल्बिषिक कहते हैं। (अन्त्यज के समान हलके देव) यद्यपि यहाँ मनुष्य लोक की भाँति देवलोक में इन किल्बिषिक देवों को शूद्रों के कार्य नहीं करने पड़ते हैं, किन्तु इनकी गिनती हलके देवों की कोटि में होती है। इसलिए अन्य देव उनको हलकी दृष्टि से देखते हैं। उपर्युक्त कथन से देवों के चारों ही निकायों में ये दस प्रकार के देव होते हैं। अतएव उसमें जो विशेषता है, उसको अब बतायेंगे ।। ४-४ ॥
SR No.022533
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1995
Total Pages264
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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