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________________ श्रोतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ १५ अब इन नवतत्त्वों में हेय, ज्ञेय और उपादेय कौन-कौन हैं ? तो कहते हैं कि-जीवतत्त्व और अजीवतत्त्व दोनों ज्ञेय यानी जानने योग्य हैं। पुण्यतत्त्व मोक्ष में विघ्नरूप नहीं है, तो भी मोक्ष के मार्ग में भोमिया (वलावा) समान है। इसलिए व्यवहारनय से उपादेय यानी अादरणीय है, किन्तु मार्ग दिखाने वाले भोमिया को इष्ट नगर पहुँचने के पश्चाद् जैसे छोड़ देते हैं, वैसे ही इधर भी निश्चयनय से तो पुण्यतत्त्व भी हेय यानी छोड़ने योग्य है। कारण कि पुण्यतत्त्व शुभकर्म होते हुए भी सोने की बेड़ी समान है और पापतत्त्व लोहे की बेड़ी के समान है। पुण्य और पाप दोनों कर्मों का सर्वथा क्षय जब हो जाय तब ही आत्मा की मुक्ति होती है। निश्चय से तो पुण्यकर्मरूप पुण्यतत्त्व हेय यानो छोड़ने योग्य होते हुए भी श्रावक-श्राविकानों को उपादेय यानी आदर के योग्य हैं। श्रमण-श्रमणियों को तो अपवाद मार्ग ही आदरने योग्य है तथा पापतत्त्व हेय यानी छोड़ने योग्य है। आस्रवतत्त्व कर्म के प्रागमन रूप होने से हेय है और संवरतत्त्व तथा निर्जरातत्त्व ये दोनों तत्त्व जीव-आत्मा के स्वभाव रूप होने से उपादेय हैं। बन्धतत्त्व हेय है और मोक्षतत्त्व उपादेय है। वास्तविक रीति से नवतत्त्व ज्ञेय हैं। तो भी विशेष रूप में कहा है कि हेया बंधासवपावा, जीवाऽजीव हुंति विनया। संवर-निज्जर मुक्खो, पुण्णं हुंति उवाएए ॥१॥ अर्थात्-(१) (पुण्य), पाप, प्रास्रव और बन्धतत्त्व हेय में जानना। (२) जीव और अजीवतत्त्व ज्ञेय में जानना। (३) संवर, निर्जरा, मोक्ष और पुण्यतत्त्व उपादेय में जानना। * तत्त्वानां निक्षेपस्य निर्देशः * नाम-स्थापना-द्रव्य-भावतस्तन्न्यासः॥५॥ * सुबोधिका टीका * जीवादीनां तत्त्वानां पदार्थानां नामादिभिश्चतुभिरनुयोगद्वारासो निक्षेपो व्यवहारो भवति । विस्तरेण लक्षणं भेदञ्च ज्ञातु विभागीकरणमेव, न्यासो निक्षेपः कथ्यते इत्यर्थः । तद्यथा-नामजीवः स्थापनाजीवो द्रव्यजीवो भावजीवश्चेति । अनर्थान्तरमिति नाम संज्ञा कर्म । (१) सचेतनस्याचेतनस्य वा द्रव्यस्य 'जीव' इति नामकरणं नामजीवः । अथवा-यस्य जीवस्यऽजीवस्य वा नाम क्रियते द्रव्यमिति तन्नामद्रव्यं ज्ञेयम् । अत्र नामनिक्षेपो वर्त्तते । (२) यः काष्ठपुस्तकचित्रकर्माक्षनिक्षेपादिषु 'जीव' इत्येवंरूपा स्थापना स
SR No.022532
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages166
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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