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________________ १० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ १४ मोहनीय कर्म का उदय हो जाय तो मिश्र सम्यक्त्व पाता है तथा अशुद्ध पुज का अर्थात् मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का उदय हो जाय तो मिथ्यात्व पाता है। सारांश यह है कि संसार में अनेक प्रकार के दुःखों का अनुभव करते हुए भव्य जीवभव्यात्मा किसी भी समय विशुद्धपरिणामी हो जाता है। इस विशुद्ध प्रात्म-परिणामधारा को ही अपूर्वकरण कहते हैं। इससे तात्त्विक पक्षपात की बाधक रागद्वेष की तीव्रता मिट जाती है तथा प्रात्मा सत्यता के लिए जागत हो जाती है। इस प्रकार की आध्यात्मिक जागति को सम्यक्त्व कहते हैं। यह सम्यक्त्व की उत्पत्ति का क्रम है। इसे विशेषता से जानने के लिए सैद्धान्तिक तथा कार्मग्रन्थिक शास्त्रों का अवलोकन करना चाहिए। क्योंकि सम्यक्त्व प्राप्ति के लिए कार्मग्रन्थिक तथा सैद्धान्तिक दो मत हैं। इनमें कार्मग्रन्थिक मत से जीव-पात्मा सर्वप्रथम औपशमिक सम्यक्त्व ही प्राप्त करता है। सैद्धान्तिक मत से औपशमिक या क्षायोपशमिक इन दोनों में से कोई भी एक सम्यक्त्व प्राप्त करता है। (१-३) सार रूप में कहें तो अरिहन्त भगवन्तों में देवबुद्धि, कंचन एवं कामिनी के त्यागी गुरु में गुरुबुद्धि एवं जिनेश्वर प्रणीत तत्त्वों में श्रद्धा ही सम्यक्त्व है। श्रद्धा जीवन के मुख्य गुणों को स्थिर कर विकास का ही साधन है। यह कोई बाह्यहेतु नहीं है, यह तो आत्मिक गुण है । श्रद्धा ही जीवन-चरित्र है एवं अयोग्य में विश्रद्धा, योग्य में सुश्रद्धा ही श्रद्धा-शुद्धि है। तत्त्वनामानिजीवाऽजीवाऽस्रव-बन्ध-संवर-निर्जरा-मोक्षास्तत्त्वम् ॥ ४॥ * सुबोधिका टीका * जीव-अजीव-प्रास्रव-बन्ध-संवर-निर्जरा-मोक्ष-इत्येष सप्तविधोऽर्थस्तत्त्वम् । अथवा एते सप्त पदार्थाः तत्त्वानि सन्ति । अर्थात् जीवः, अजीवः, आस्रवः, बन्धः संवरः निर्जरा मोक्षश्चैते सप्तसंज्ञका एव तत्त्वानि भवन्ति इत्यर्थः । एतान् लक्षणतो विधानतश्च पुरस्तात् उपदेक्ष्यामः । तत्त्वार्थसारस्यानुसारम् सामान्यादेकधा जीवो बद्धो मुक्तस्ततो द्विधा । स एवासिद्धनोसिद्ध-सिद्धत्वात् कीर्त्यते त्रिधा ॥ २३४ ॥ श्वाभ्रतिर्यग्नरामर्त्य - विकल्पात् स चतुर्विधः । प्रशमक्षयतद्वन्द्व . परिणामोदयोद्भवात् ॥२३५ ॥ भावात्पंच - विधत्वात् स पंचभेदः प्ररूप्यते । षड्मार्गगमनात् षोढा सप्तधा सप्तभंगतः ॥ २३६ ॥
SR No.022532
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages166
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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