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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
प्रगट होने वाला सम्यग्दर्शन अधिगमसम्यग्दर्शन है। ऐसा होने में तद्-तद्जीव का तथाभव्यत्व कारण है।
प्रत्येक जीव में तथाभव्यत्व भिन्न-भिन्न होने से सम्यग्दर्शनादि गुण भी भिन्न-भिन्न रीति से भिन्न-भिन्न हेतुओं से प्राप्त होते हैं। इससे किसी जीव को निसर्ग से और किसी जीव को अधिगम से सम्यग्दर्शन गुण की प्राप्ति होती है। जिस जीव का जिस प्रकार का तथाभव्यत्व हो उसे वैसे ही मोक्ष के साधनभूत सम्यग्दर्शन आदि गुणों की प्राप्ति होती है, अनन्तर मोक्ष की भी प्राप्ति होती है।
निश्चय और व्यवहार दृष्टि से भिन्नता-आध्यात्मिक विकास से उत्पन्न हुअा अात्मा का परिणाम ही निश्चय सम्यक्त्व है। वह ज्ञेयमात्र को तात्त्विक रूप से जानने की, हेय को छोड़ने की
और उपादेय को ग्रहण करने की रुचि रूप है। जिस रुचि के बल से धर्मतत्त्व की निष्ठा यानी जागृति उत्पन्न होती है वह व्यवहार सम्यक्त्व है। निश्चय और व्यवहार दृष्टि से दोनों सम्यक्त्व में पृथक्ता यानी भिन्नता है।
सम्यक्त्वी के चिह्न-जीव को सम्यग्दर्शन की अर्थात् सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई इसकी पहिचान के लिए पाँच लिङ्ग माने हैं, जिनके नाम हैं-प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य ।
सम्यक्त्व के भेद-सम्यक्त्व के पाँच भेद हैं-औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, वेदक और सास्वादन । संसारवर्ती जीव जब जगत् में प्रथम बार ही सम्यक्त्व प्राप्त करता है तब औपशमिक सम्यक्त्व पाता है।
हेतुभेद-प्रात्मा को जब सम्यग्दर्शन के योग्य आध्यात्मिक उत्क्रान्ति यानी उन्नति होती है तब सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। किन्तु उसमें इस आविर्भाव के लिए किसी जीव को बाह्य निमित्त की अपेक्षा रहती है और किसी जीव को अपेक्षा नहीं भी रहती है। जैसे कोई व्यक्ति अध्यापक यानी शिक्षक आदि की सहायता से शिल्पादि कलाओं को सीखता है और कोई व्यक्ति अन्य की सहायता बिना भी स्वयं ही सीख लेता है।
आन्तरिक हेतुओं-कारणों की समानता होते हुए भी बाह्य निमित्त की अपेक्षा और अनपेक्षा लेकर 'तत्त्वार्थाधिगम सूत्र' में सम्यग्दर्शन को निसर्ग सम्यग्दर्शन और अधिगम सम्यग्दर्शन इन दो भेदों में विभक्त किया है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए बाह्य निमित्त भी अनेक प्रकार के होते हैं। जैसेकोई जिनेश्वर भगवान आदि की मूर्ति-प्रतिमा इत्यादि धार्मिक वस्तुओं के अवलोकन से सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। कोई गुरु के सदुपदेश से, शास्त्र के पठन-पाठन से तथा कोई सत्संग इत्यादिक से भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है। निसर्ग, परिणाम, स्वभाव तथा अपरोपदेश ये सब एकार्थवाची शब्द हैं। अधिगम, पागम, निमित्त, श्रवण और शिक्षा ये सब भी एकार्थवाची शब्द हैं।
सम्यक्त्व का उत्पत्तिकम-अनादिकालीन इस संसार के प्रवाह में अनन्तपुद्गलपरावर्तन पर्यन्त अनन्त दुःखों का अनुभव करते हुए जीव-प्रात्मा के तथाभव्यत्व का परिपाक हो जाने से नदीघोलपाषाणन्याय से अनाभोग से उत्पन्न हुए प्रात्मा के विशिष्ट शुभ अध्यवसाय रूप यथाप्रवृत्तिकरण द्वारा जब आयुष्य बिना सात कर्मों की स्थिति घट कर सिर्फ अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण अर्थात्