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________________ ११ ] प्रथमोऽध्यायः [ ३ सत्यां तत्पूर्वस्य दर्शनोपलब्धिः निश्चितैव । अत्र ज्ञानस्य वीतरागभावस्य सर्वोत्कृष्टत्वमेव मोक्षः । अपि च आमूलानां कर्मबन्धानां क्षयः मोक्षः । तत्र सम्यगिति प्रशंसार्थे निपातः, समञ्चतेर्वा भावः । दर्शनमिति । सर्वेन्द्रियाणामनिन्द्रियाणां च विषयाणां सम्यग्रूपेण प्राप्तिरिति सम्यग्दर्शनम् । प्रशस्तं दर्शनं सम्यग्दर्शनम् । युक्तियुक्तदर्शनं सम्यग्दर्शनम्। संगतं वा दर्शनं सम्यग्दर्शनम् । तत्त्वभूतजीवाजीवादिपदार्थेषु श्रद्वा वर्तते एव सम्यग्दर्शनम् । तत्त्वभूत-जीवाजीवादिपदार्थानां यथार्थबोधं सम्यग्ज्ञानम् । यथार्थज्ञानपूर्वकमसक्रियायाः निवृत्तिः सक्रियायां च प्रवृत्तिः सम्यक्चारित्रम्। समस्तकर्मणां क्षयो मोक्षः। साधनमुपायश्च मार्गः । अतः युगपत् 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि' एव मोक्षस्य मार्गः । तद् द्वारा हि भव्यजीवस्य मोक्षप्राप्तिरेव । * सूत्रार्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्ष के मार्ग हैं अर्थात् मोक्ष के साधन एवं मोक्ष के उपाय हैं ॥१॥ ॐ विवेचन अनादि और अनन्तकालीन इस विश्व में जीव भी अनादिकाल से अनन्तानन्त हैं। संसार में रहे हुए समस्त जीव सदैव सुख चाहते हैं; दुःख कोई कभी नहीं चाहता। सुख की प्राप्ति के लिए और दुःख को दूर करने के लिए वे लोक में अर्थ और काम इन दोनों पुरुषार्थों का सेवन करते हैं। उनका सेवन करने पर भी सर्वथा न तो दुःख दूर कर सकते हैं और न ही सम्पूर्ण सुख को प्राप्त कर सकते हैं। कारण कि अर्थ से और काम से मिलने वाला सुख दुःखमिश्रित तथा क्षणिक होने से अपूर्ण है। धर्म और मोक्ष इन दोनों पुरुषार्थों के सेवन से ही चिरन्तन तथा दुःखरहित सम्पूर्ण सुख की प्राप्ति होती है। इसलिए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में धर्म और मोक्ष ये दोनों ही मुख्य हैं। उनमें भी धर्म तो मोक्ष का कारण होने से प्रौपचारिक पुरुषार्थ है। अतः चारों पुरुषार्थों में मोक्षपुरुषार्थ ही मुख्य है-प्रधान है। इसलिए ज्ञानी महापुरुषों ने भी भव्यजीवों को मोक्षमार्ग का ही सदुपदेश दिया है और देते हैं। यहाँ भी पूर्वधर परमर्षि वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज प्रथम मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करते हैं। प्रस्तुत शास्त्र का मुख्य प्रतिपाद्य विषय मोक्ष है। मोक्ष का स्वरूप-बन्धकारणों के सर्वथा अभाव हो जाने से जो सर्वाङ्गीण सम्पूर्ण आत्मविकास की परिपूर्णता होती है, वही मोक्ष है अर्थात् वह ज्ञान और वीतरागभाव की सर्वोत्कृष्टतापराकाष्ठारूप है। साधनों का स्वरूप-जिस गुण के विकास से तत्त्व यानी वस्तुधर्म की प्राप्ति हो और
SR No.022532
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages166
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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