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________________ सम्बन्धकारिका-७ हिन्दी पद्यानुवाद : • जन्म-जरा और मृत्यु की पीड़ा से व्याप्त विश्व को , अशरण और असार जान, तज दिया राज्य-वैभव को। निज आत्म में परम शान्ति और मोक्ष शाश्वत सुख को, पाने के लिए प्रभु वीर ने स्वीकारा सुसंयम को। श्री महावीरप्रभु को केवलज्ञान की प्राप्ति तथा धर्मतीर्थ की स्थापना प्रतिपद्याशुभशमनं, निःश्रेयस-साधकं श्रमणलिङ्गम् । कृतसामायिककर्मा, व्रतानि विधिवत् समारोप्य ॥ १६ ॥ सम्यक्त्वज्ञानचारित्र - संवरतपः समाधिबलयुक्तः । मोहादीनि निहत्या - शुभानि चत्वारि कर्माणि ॥ १७ ॥ केवलमधिगम्य विभुः स्वयमेव ज्ञानदर्शनमनन्तम् । लोकहिताय कृतार्थोऽपि देशयामास तीर्थमिदम् ॥ १८ ॥ टीका : अशुभस्य (पापस्य) शमनकर्ता मोक्षस्य साधकः साधुवेषधारीसन् सामायिक कार्यं कृतवान् यः स वीरः परमात्मा विधिपूर्वकं व्रतग्रहणं कृत्वा ।। १६ ॥ सम्यक्त्वेन, ज्ञानेन, चारित्रेण, संवरेण, तपसा, समाधिना, बलेन च युक्तः मोहनीयादीनि चत्वारि अशुभानि घातिकर्माणि सर्वथा विनाशं कृत्वा (यः) ।। १७ ॥ स्वयमेवानन्तकेवलज्ञानं केवलदर्शनञ्च लब्ध्वा प्रभुः महावीरदेवः कृतार्थोऽपि लोकहिताय इदं तीर्थं (प्रवचनं) प्रकाशयति ।। १८ ।। अर्थ : अशुभ कर्मों का उपशमन करने वाले अर्थात् विनाश करने वाले तथा मोक्ष के साधक अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति कराने वाले ऐसे श्रमणलिङ्ग को--साधुवेष को धारण करके, ग्रहण किये हुए सर्वविरति सामायिक वाले प्रभु महावीर ने व्रतों को भी विधिपूर्वक करके-॥ १६ ॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, संवर, तप और समाधि के बल से युक्त प्रबल होकर अपने अष्टकर्म पैकी मोहनीयादि चार अशुभ घाती कर्मों का क्षय करने पर-॥ १७ ॥ क्षायिकभावे अनन्त ऐसे केवलज्ञान और केवलदर्शन गुण को प्राप्त करके, सर्वज्ञ बनने से कृतकृत्य अर्थात् कृतार्थ होते हुए भी केवल लोकहित के लिए इस (वर्तमान में जो प्रवर्तता है वह) धर्मतीर्थ का (मोक्षमार्ग का) उपदेश दिया अर्थात् धर्मतीर्थ को प्रकाशित किया ॥ १८ ॥ हिन्दी पद्यानुवाद : . किया पंचमुष्टि लोच फिर, इन्द्र से लिया सुवेश को , धर्मकारण भवनिवारण, कर्म मारण ये जग जयो। सामायिक सर्वविरति को, उच्चरे विधिपूर्वक महा , वर्ष द्वादश कर तपस्या, परीषह सहे समता सदा ॥ • सम्यग्दर्शन - ज्ञान-संयम, संवर-तप - समाधि के , बल से युक्त प्रबल होकर, अद्भुत योजना करके ।
SR No.022532
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages166
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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