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________________ ८० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ११३५ * लिङ्गभेद-भिन्न-भिन्न लिङ्ग के शब्दों का भिन्न-भिन्न अर्थ है। जैसे—नर और नारी इत्यादि। * कालभेद-भिन्न-भिन्न काल के शब्दों का भी भिन्न-भिन्न अर्थ है। जैसे-था, है और होगा इत्यादि। * वचनभेद-भिन्न-भिन्न वचन के भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। जैसे-मनुष्य और मनुष्यों इत्यादि। * कारकभेद-कारक के भेद से अर्थ का भेद होता है। जैसे-धर्म, धर्म को, धर्म में इत्यादि। इस तरह शब्दनय लिङ्ग आदि के भेद से अर्थभेद मानता है, किन्तु एक ही शब्द के पर्यायवाची शब्दों के भेद से अर्थभेद नहीं स्वीकारता है। मनुष्य, मानव, मनुज इत्यादि शब्द भिन्न-भिन्न होते हुए भी एक ही शब्द के पर्यायवाची शब्द होने से उन सर्व शब्दों का मानव ऐसा एक ही अर्थ रहेगा। (६) समभिरूढनय-शब्द की व्युत्पत्ति के आधार पर उस अर्थभेद की जो कल्पना करे वही समभिरूढ़नय कहा जाता है। यह नय एक ही पर्यायवाची वस्तु-पदार्थ का शब्दभेद से अर्थभेद स्वीकारता है। शब्दनय समान पर्यायवाची शब्दों का अर्थ एक ही मानता है, किन्तु यह समभिरूढ़नय शब्दभेद से अर्थभेद मानता है। उसका कहना यह है कि जो लिङ्ग, काल, वचन) और कारक इन भेदों से अर्थ का भेद मानने में आ जाय तो व्युत्पत्तिभेद से भी अर्थ का भेद मानना चाहिए। प्रत्येक शब्द की व्युत्पत्ति भिन्न-भिन्न होती है। इसलिए प्रत्येक शब्द का अर्थ भी भिन्न-भिन्न होता है। जो राजा-महाराजा, नृप-नृपति एवं भूप-भूपति इत्यादि प्रत्येक शब्द का अर्थ भी भिन्न-भिन्न है। जैसे-(१) जो राजचिह्नों से शोभता है, वह 'राजा-महाराजा' है। (२) जो प्रजा-मानव का रक्षण करता है, वह 'नृप-नृपति' है। (३) जो पृथ्वी का पालन करता है वह 'भूप-भूपति' है। ___ शब्दनय और समभिरूढ़नय इन दोनों नयों में विशेषता-भिन्नता के लिए यह प्रश्न है कि क्या शब्दनय शब्दभेद से अर्थभेद को नहीं स्वीकारता है ? उत्तर में कहते हैं कि-शब्दनय शब्दभेद से अर्थभेद को स्वीकारता भी है और नहीं भी स्वीकारता है। शब्दनय समान पर्यायवाची शब्दों के बिना इतर शब्दों में शब्दभेद से अर्थभेद मानता है। जैसे–इन्द्र, सूर्य और चन्द्र इत्यादि शब्दों के अर्थ भिन्न-भिन्न हैं। ऐसा होते हुए भी पर्यायवाची शब्दों में शब्दभेद से शब्दनय अर्थभेद को नहीं मानता है। ऐसी स्थिति में समभिरूढ़नय तो समान पर्यायवाची शब्दों में भी शब्दभेद से अर्थभेद मानता है। शब्दनय में और समभिरूढ़नय में इतनी ही विशेषता-भिन्नता है। (७) एवंभूतनय-जो शब्द फलितार्थ अर्थात् परिपूर्ण अवस्था को प्राप्त हो, उसे 'एवंभूतनय' कहा जाता है। अर्थात्-जो नय वस्तु-पदार्थ में जब शब्द का व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ घटता हो तब ही उस शब्द से उस वस्तु को सम्बोधे, वह एवंभूतनय है। जैसे-राजा-महाराजा राजचिह्नों से समलङ्कृत-सुशोभित होवे, तब ही वह राजा-महाराजा कहलाता है। इस तरह यह एवंभूतनय क्रियाभेद से अर्थात व्युत्पत्ति सिद्ध अर्थ के भेद से अर्थभेद मानता है।
SR No.022532
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages166
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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