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________________ १।३३ ] प्रथमोऽध्यायः [ ६६ जैसे - किसी भी व्यक्ति को सीप में रूपा-चांदी का ज्ञान हुप्रा । यह ज्ञान मिथ्या कहा जाता है, क्योंकि उसका बाधक ज्ञान विद्यमान उपस्थित है । यहाँ तो ऐसा नहीं है, तो फिर समोचोन और मिथ्याज्ञान के भेद का क्या कारण है कि उनके ज्ञान को विपरीत ज्ञान या अज्ञान कहा जाता है ? उत्तर - कारण यही है कि, मिथ्यादृष्टिवन्त के सभी ज्ञान विपरीत हो होते हैं । वे ज्ञान वस्तुपदार्थ के यथार्थ स्वरूप का परिच्छेदन नहीं करते हैं । इसलिए उनका ज्ञान विपरीत कहा जाता है । प्रश्न- सम्यग्दृष्टिवन्त व्यक्ति को भी जैसे भौतिकज्ञान के विषय में सन्देह संशय या विपरीत ज्ञान होता है, वैसे प्राध्यात्मिकज्ञान के विषय में होता है कि नहीं ? उत्तर -- सम्यग्दृष्टिवन्त व्यक्ति को भी अपनी अल्प मत्यादि के कारण या उपदेश की स्खलना भूल से आध्यात्मिकज्ञान के विषय में भी सन्देह- संशय या विपरीत ज्ञान हो जाय, तो भी उसमें सम्यग्दर्शन गुण के प्रभाव से प्राध्यात्मिक प्रगति विकास के पाया रूप सत्य - जिज्ञासा और सत्यस्वीकार आदि गुणों से वह अपने से विशेष ज्ञाताओं के पास वस्तु पदार्थ का सत्य समझने के लिए प्रयत्न करता है । उसमें भी अपनी स्खलना भूल समझ में या जाय तो तत्काल उसे सुधार लेता है । इतना ही नहीं किन्तु सत्य वस्तु पदार्थ का स्वीकार भी अवश्य कर लेते हैं । जिस विषय में 'सत्य क्या है' वह समझ न सके तो भी तद् विषय में 'सर्वज्ञ जिनेश्वर विभु ने जो कहा है वह ही सत्य है' ऐसी निर्णयात्मक दृढ़ मान्यता अपने अन्तःकरण में अवश्यमेव धरते हैं, किन्तु यही सत्य है, ऐसा कदाग्रह नहीं रखते। स्वयं समझता है कि छद्मस्थ जीवों की बुद्धि परिमित होने से सत्यासत्य का निर्णय नहीं हो सकता । 'सत्यासत्य का निर्णय तो सर्वज्ञ जिनेश्वर भगवन्तों के धर्मोपदेश के आधार से ही हो सकता है ।' ऐसा मानस सम्यग्दृष्टिवन्त का होता है । मिथ्यादृष्टिवन्त का मानस इसके विपरीत होने से वह स्वमतिकल्पना से सत्यासत्य का निर्णय करता है । इसलिए मिथ्यादृष्टिवन्त व्यक्ति का मत्यादिज्ञान अज्ञान स्वरूप है । इस बात का समर्थन आगे आने वाले सूत्र में है ।। ३२ ।। * मिथ्यादृष्टीनां मत्यादित्रिज्ञानानि विपरीतं किम् ? सदसतोरविशेषाद् यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ॥ ३३ ॥ * सुबोधिका टीका सम्यग्दर्शनपरिगृहीतं यन् मत्यादिज्ञानं भवति, अन्यथा अज्ञानमेवेति भवता प्रोक्तम् । मिथ्यादृष्टयोऽपि तु भव्याश्चाभव्याश्च स्पर्शेन्द्रियादि निमित्तानविपरीतान् स्पर्शादीन् उपलभन्ते तथा उपदिशन्ति स्पर्शं स्पर्श, रसं रस एवं शेषान् सर्वान् तत् कथमेतदिति ? इति । कथ्यतेऽत्र - तेषां विपरीतमेतद् भवति । यथा - मिथ्यादृष्टिवतां उन्मत्तानामिव सदसतोविशेषतां विना विपरीतार्थग्रहण कारणेन पूर्वोक्तानि त्रीण्यपि निश्चयाद् अज्ञानानि मन्यन्ते । अर्थात् - उन्मत्तपुरुषः कर्मोदयाद् हतेन्द्रियमतिविपरीतग्राही भवति । सोऽपि
SR No.022532
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages166
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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