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________________ परिशिष्ट नं०२ [ २७५ तृणस्पर्श और मल यह ग्यारह परोषह ] वेदनीय कर्म के उदय से होती हैं। १७--एक हो जीव में एक को आदि लेकर एक साथ उन्नीस परोपह तक विभाग करनी चाहिये । पांच प्रकार का चारित्र१८-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात यह पांच प्रकार का चारित्र है। बारह प्रकार के तपों का वर्णन१६–अनशन, अवमौर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन और कायक्लेश यह छह प्रकार के बाह्य तप हैं । २०--प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान यह छह अभ्यन्तर तप हैं। २१-प्रायश्चित के नो, विनय के चार, वैयाक्ष्य के दश, स्वाध्याय के पांच और व्युत्सर्ग के दो भेद हैं। २२–पालोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तपः, छेद, परिहार और उपस्थापना यह प्रायश्चित के नौ भेद हैं । २३--ज्ञानविनय, दशनविनय, चारित्रविनय और उपचार विनय यह चार विनय के भेद हैं। २४-प्राचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और __ मनोज्ञ इन दश प्रकार के साधुओं की सेवा टहल करना सो दश प्रकार का वैयाल्य है। २५–वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश यह स्वाध्याय के पांच भेद हैं। २६- बाह्य उपधि और अभ्यन्तर आदि का त्याग करना सो दो प्रकार का व्युत्सर्ग तप है।
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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