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________________ [ २७३ विशेषता से आत्मा के समस्त प्रदेशों में एक क्षेत्रावगाह रूप से स्थित जो सूक्ष्म अनंतानंत कर्मपुद्गलों के प्रदेश हैं उनको प्रदेश बंध कहते हैं । पुण्य तथा पाप प्रकृतियां - २५ – सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्र यह पुण्य रूप प्रकृतियां हैं । २६–इन प्रकृतियों से बाकी बची हुई कर्मप्रकृतियां पाप रूप अशुभ हैं । नवम अध्याय परिशिष्ट नं. २ :0: संवर का लक्षण -- १ - श्रस्रव के रोकने को संवर कहते हैं । संवर के कारण २ – वह संवर तीन गुप्तियों पांच समितियों, दश धर्म के पालन करने, बारह अनुप्रेक्षाओं के चितवन, बाईस परीषदों के जीतने और पांच प्रकार के चारित्र के पालने से होता है । - निर्जरा के कारण ३ – बारह प्रकार के तप करने से निर्जरा और संवर दोनों होते हैं । तीन गुप्तियां- ४ – भले प्रकार मन, वचन, और काय की यथेष्ठ प्रवृत्ति को रोकना सो गुप्त हैं । पांच समितियां- ५ – ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेप और उत्सर्ग यह पांच समितियां हैं। दश धर्म ६ – उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम श्राजर्व, उत्तम शौच, उत्तम सत्य,
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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