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तत्वार्थ सूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
१९ - [ व्रती जीव दो प्रकार के होते हैं ], अगारी ( गृहस्थी ) और
गृहत्यागी साधु ।
अणुव्रती श्रावक
२० - अणुव्रतों का पालन करने वाले को अगारी कहते हैं । २१ - दिग्विरति, देशविरति अनर्थदंडविरति [ इन तीन गुण व्रतों ] सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोगपरिभोग परिमाण और प्रतिथिसंविभाग व्रत [ इन चार शिक्षावतों का ] भी अगारी पालन करे ।
२२ — और
मृत्यु के समय होने वाली सल्लेखना का पालन करे । व्रतों और शीनों के अतिचार
२३ - शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तव यह पांच सम्यग्दर्शन के चार हैं ।
२४ – पांचों व्रत और सात शीलों के भी कम से पांच २ प्रतीचार हैं । २५ – बंध, बध, छेद, अत्यन्त बोझ लादना, और अन्न पानी न देना यह पांच अहिंसावत के प्रतीचार हैं ।
२६ - झूठा उपदेश देना, किसी की गुप्त बात को प्रगट कर देना, झूठे स्टाम्प आदि लिखना, किसी को धरोहर को अपना लेना, और किसी की चेष्टा आदि से उसके मन की बात को जानकर प्रगट कर देना यह पांच सत्यावत के अतीचार हैं ।
२७ – चोरी करने का उपाय बताना, चोरी की वस्तु को लेना, राज्य (देश) के विरुद्ध चलना, नाप और तोल के वाट आदि को कमती बड़ती रखना, और असल माल में खोटा माल मिला कर बेचना (प्रतिरूपक व्यवहार ) यह पांच अचौर्यावत के अतीचार हैं ।
२८ - - दुसरे का विवाह करना या कराना, परिगृहीतेत्वरिकागमन, अपरिगृहीत्वरिकागमन, अनंगक्रीडा, और कामतीवाभिनिवेश* यह पांच ब्रह्मचर्याशुवत के श्रीचर हैं ।
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'इनका लक्षण इसी प्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र जैनागमसमन्वय के पृ० १७० पर देखो
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