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तत्त्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वय :
छिपाने और अपने विद्यमान गुणों को प्रगट करने से नीच मोत्र कर्म का प्रसव होता है ।
२६ - इसके विपरीत अपनी निंदा करने पर की प्रशंसा करने, अपने विद्यमान गुणों को छिपाने पर के गुणों को प्रकाशित करने और अपने से गुणाधिक के सामने विनय रूप से रहने तथा गुणों में भी मद न करने ( अनुत्सेक ) से उच्चगोत्र कर्म का २७ – दूसरे के दान, भोग आदि में विघ्न करने से अन्तराय
बड़ा होते हुए
सूव होता है । कर्म का
व
होता है ।
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सप्तम अध्याय
पांच व्रत
१ – हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह से ज्ञान पूर्वक विरक्त होना व्रत है ।
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२ – उक्त पांचों पापों का एक देश त्याग करना अणुव्रत कहलाता है । और पूर्ण त्याग करना महाव्रत है ।
३ – उन व्रतों को स्थिर करने के लिये प्रत्येक व्रत की पांच २ भावनाएं हैं । ४ - वचनगुप्ति, मनो गुप्ति, ईर्यासमिति, श्रदाननिक्षेपण समिति और आलोकितपान भोजन यह पांच हिसावत की भावनाएं हैं ।
५ - कोध का त्याग, लोभ का त्याग, भय का त्याग, हास्य का त्याग और शास्त्र के अनुसार निर्दोष वचन बोलना यह पांच सत्यव्रत की भावनाएं हैं ।
६ - खाली घर में रहना, किसी के छोड़े हुए स्थान में रहना, अन्य को रोकना नहीं, शास्त्रविहित आहार की विधि को शुद्ध रखना और सहधर्मी भाइयों से विसंवाद नहीं करना यह पांच अचौर्यव्रत की भावनाएं हैं । ७ स्त्रियों में प्रीति उत्पन्न करने वाली कथाओं का त्याग, स्त्रियों के मनो