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________________ परिशिष्ट ०२ [ २६३ काल द्रव्य३६-काल भी द्रव्य है। ४०-बह काल द्रव्य अनन्त समय पाला है। गुण का लक्षण४१ जो द्रव्य के नित्य आश्रित हो अर्थात् बिना द्रव्य के आश्रय के न रा सकें तथा स्वयं अन्य गुणों से रहित हो वह गुण हैं। पर्याय का लक्षण४२-द्रव्यों के जिस रूप में वह हैं उसी रूप में होने को परिणाम या पर्याय कहते हैं। षष्ठ अध्याय आस्रव का वर्णन१--काय, वचन और मन की क्रिया को योग कहते हैं। २--वह योग ही कमों के आगमन का द्वार रूप प्रास्त्रब है। ३--शुभ परिणामों से उत्पन्न हुआ योग पुण्य प्रकृतियों के आस्रव का कारण है तथा अशुभ परिणामों से उत्पन्न हुमा योग पापरूप कर्मप्रक तियों के आस्रव का कारण है । ४--कषाय सहित जोवों के होने वाला सांपरायिक आस्रव तथा कथायरहित जोवों के होने वाला ईर्यापथ आस्त्रव होता है । साम्परायिक आस्रव के भेद५-प्रथम साम्परायिक भासव के निम्नलिखित भेद हैं पांच इन्द्रिय, चार कषाय, पांच अव्रत, और पञ्चीस क्रिया । ६-उस पासव में भी तीव्रभाव, मन्दभाव, शातभाष, अज्ञातभाव, अधिकरण और वीर्य की विशेषता से न्यूनाधिकता होती है।
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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