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३० -- एक जीव में एक साथ विभाग किए हुए एक से लेकर चार ज्ञान तक हो
सकते हैं।
परिशिष्ट नं० २
तीन अज्ञान
३१ - पति, श्रुत और अवधि यह तीन ज्ञान विपर्यय भी कहलाते हैं । [ उस समय
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यह कुमति, कुश्रुत और कुअवधि अथवा विभंग ज्ञान कहलाते हैं । ] ३२ – सत् और असत् पदार्थों के भेद का ज्ञान न होने से स्वेच्छा रूप यद्वा तद्वा जानने के कारण उन्मत्त के समान यह मिथ्याज्ञान भी होते हैं ।
सात नय
३३- नय सात होती हैं
नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूट और एवंभूत ।
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द्वितीय अध्याय
जीव के भाव
१ - जीव के अपने पांच भाव होते हैं
औपशमिक, क्षायिक, मिश्र अथवा क्षायोपशमिक, प्रौदयिक और पारिणामिक |
२ – उनके क्रमशः दो, नौ, अठारह, इक्कीस और तीन भेद हैं अर्थात् श्रपशमिक भाव दो प्रकार के हैं, क्षायिक भाव नौ प्रकार के हैं, क्षायोपशमिक भाव अठारह प्रकार के हैं, औदायिक भाव इक्कीस प्रकार के हैं और पारिणामिक भाव तीन प्रकार के हैं ।
३ – औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र ये दो औपशमिक भाव के
भेद हैं ।
४ - क्षायिक भाव नौ हैं
केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग,