________________
[ २४५
७
- निर्देश, स्वामित्व, साधन ( उत्पत्ति का कारण ), अधिकरण ( वस्तु का धार), स्थिति, और विधान (भेद) से भी वह जाने जाते हैं ।
परिशिष्ट नं० २
८ – सत्, संख्या, क्षेत्र (पदार्थ का वर्तमान निवास), स्पर्शन ( तीनों कालों में निवास करने का क्षेत्र ), काल, अन्तर ( विरह काल ), भाव ( औपशमिक आदि) और अल्पबहुत्व से भी उनका ज्ञान होता है ।
पांचां ज्ञान का वर्णन
९ - ज्ञान पांच प्रकार का होता है
-
मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल ।
१० - वह पांच प्रकार का ज्ञान दो प्रमाण रूप है।
११ - आदि के दो मति और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं ।
१२ - बाकी के अवधि, मनः पर्यय और केवलज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हैं ।
१३ - मति ( वर्तमान कालवर्ती पदार्थ को अवग्रह आदि रूप जानना), स्मृति (अनुभूत पदार्थ का कालान्तर में स्मरण करना), संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान अथवा मति और स्मृति रूप ज्ञान ), चिन्ता ( अविनाभाव सम्बन्ध का ज्ञान ), अभिनिबोध, (चिन्ह देखकर चिन्ह वाले का निश्चय कर लेना) और इनको आदि
लेकर अन्य प्रतिभा, बुद्धि आदि सब अनर्थान्तर हैं, अर्थात् मतिज्ञान ही हैं । १४ - वह मतिज्ञान पांच इन्द्रिय और मन के निमित्त से होता है।
१५ – उसके चार भेद हैं- भवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ।
१६ - बहु, बहुविध, क्षिम, अनिःसृत, अनुक्त, ध्रुव, अल्प, एकविध, अक्षिम, निःसृत, उक्त और अध्रुव इस प्रकार बारह प्रकार का अवग्रह आदि रूप ज्ञान होता है ।
१७ – यह उपरोक्त भेद प्रकट रूप पदार्थ के हैं, [जो २८८ हैं ।]
१८ -- अप्रकट रूप पदार्थ का केवल अवग्रह हो होता हैं, अन्य ईहा आदि नहीं होते। १९ - अप्रकट रूप पदार्थ का ज्ञान नेत्र और मन से नहीं होता । [ अतएव अप्रकट रूप पदार्थ के कुल ४८ भेद ही होते हैं, अर्थात् मतिज्ञान के कुल ३३६ भेद होते हैं ।]