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________________ २३६ ] तत्त्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वय : छाया- चतुर्भिः स्थानैः जीवाश्च पुद्गलाश्च न शक्नुवंति बहिस्ताल्लोका न्ताद्गमनाय । तद्यथा-गत्यभावेन निरुपग्रहतया (धर्मास्तिकाया भावेन) रूक्षतया लोकानुभावेन । - भाषा टीका - चार कारणों से जीव और पुद्गल लोक के अन्त से बाहिर नहीं जा सकते आगे गति का अभाव होने से, उपग्रह (धर्मास्तिकाय ) का अभाव होने से, लोक के अंत भाग के परिमाणुओं के रूक्ष होने से और अनादि काल का स्वभाव होने से । सगति - आगम में जीव और पुद्गल दोनों की अपेक्षा विशेष दृष्टि से कथन किया गया है, जैसा कि आगमों में प्रायः होता है । सूत्रों में संक्षिप्त ही वर्णन किया जाता क्षेत्रकालगतिलिंगतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनान्तरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्याः। १०, ६. खेत्तकालगईलिङ्गतित्थे चरित्ते। व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५, उ० ६, २०७५१. पत्तेयबुद्धसिद्धा बुद्धबोहियसिद्धा। नन्दिसूत्र केवलज्ञानाधिकार. नाणे खेत्त अन्तर अप्पाबहुयं ।। ____ व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५, ३० ६, सू०७५१. सिद्धाणोगाहणा संख्या । उत्तराध्ययन अध्ययन ३६, गाथा ५३. छाया- क्षेत्रकालगतिलिङ्गतीर्थः चरित्रः । प्रत्येकबुद्धसिद्धाः बुद्धबोधितसिद्धाः । शानं क्षेत्रान्तराल्पबहुत्वं । सिद्धानामवगाहना संख्या ।
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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