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________________ तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय : उप्पायठितिभंगाई पजयागं जमेगदव्वंमि । नाणानयाणुसरणं पुव्वगयसुयाणुसारेणं ॥ १ ॥ सवियारमत्थवंजणजोगंतरत्र तयं पढमसुक्कं । होति पुहुत्तवियक्कं सवियारमरागभावस्स ॥ २ ॥ जं पुण सुनिप्पकंपं निवाय सरणप्पईवमिव चित्तं । उप्पायटिइभंगाइयाणमेगंमि पजाए ॥ ३ ॥ अवियारमत्थवं जग जोगंतर तयं बिइयसुक्कं । पुव्वगयसुयालंबण मेगत्तवियक्कमवियारं ॥ ४ ॥ २२६ ] स्थानांग सूत्र वृत्ति स्था० ४, उ० १, सू० २४७. उत्पादस्थितिभंगादिपर्यवानां यदेकस्मिन् द्रव्ये । नानानयैरनुसरणं पूर्णगतश्रुतानुसारेण ॥ १ ॥ सविचारमर्थव्यञ्जनयोगान्तरतस्तत् प्रथमशुक्लम् । भवति पृथक्त्ववितर्कं सविचारमरागभावस्य ॥ २ ॥ यत्पुनः सुनिष्प्रकंपं निवातस्थानप्रदीपमिव चित्तं । उत्पादस्थितिभंगादीनामेकस्मिन् पर्याये ॥ ३ ॥ अविचारमर्थव्यञ्जनयोगान्तरतस्तत् द्वितीयं शुक्लम् । पूर्वगतश्रुतालम्बनमेकत्ववितर्कमविचारम् ॥ ४ ॥ भाषा टीका – जो एक द्रव्य में पूर्वगतश्रुत के अनुसार अनेक नयों के द्वारा उत्पाद, व्यय, धौव्य आदि पर्यायों का विचार सहित अर्थ, व्यञ्जन और योग का अन्तर ( पलटना अथवा संक्रान्ति ) है उसे पृथक्त्ववितर्क सविचार नामका प्रथम शुक्लध्यान कहते हैं। यह रागरहित भाववाले मुनियों के होता है ॥ १-२ ॥ और जो उत्पाद, व्यय, धौव्य आदि भंगों में से एक पर्याय में अर्थ, व्यञ्जन और योग के अन्तर के विचार रहित निर्वातस्थान में दीपक के समान निष्कम्प रहता है वह पूर्वगत तालम्बन रूप एकत्ववितर्क अविचार नामका द्वितीय शुक्ल ध्यान है ॥ ३४॥ इस प्रकार बाह्य और आभ्यन्तर तपों का वर्णन किया गया। यह दोनों प्रकार के तप छाया
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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