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तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
नामकर्म कहते हैं।
२६. जिसके उदय से रस आदि सात धातुएं और उपधातुएं अपने २ स्थान में स्थिरता को प्राप्त हों, दुष्कर उपवास आदि तपश्चरण से भी उपांगों में स्थिरता रहे-रोग नहीं होवे उसे स्थिर नामकर्म कहते हैं । रस, रुधिर, मांस, मेद, हाड़, मज्जा और वीर्य ये सात धातुएं हैं। पात, पित्त, कफ, शिरा स्नायु, चाम और जठराग्नि ये सात उपधातुएं हैं।
३०. जिसके उदय से तनिक उपवास आदि करने से तथा थोड़ी बहुत सर्दी लगने से अंगोपांग कृश होजाय, धातु उपधातुओं की स्थिरता नहीं रहे, रोग हो जावें उसे अस्थिरनामकर्म कहते हैं।
३१. जिसके उदय से शरीर के मस्तक आदि अवयव सुंदर हों-देखने में रमणीक हों, उसे शुभनामकर्म कहते हैं। ___ ३२. जिसके उदय से शरीर के अवयव सुन्दर न हों उसे अशभनामकर्म कहते हैं।
३३. जिसके उदय से अन्य के प्रीति उत्पन्न हो अर्थात् दूसरों के परिमाण देखते ही प्रीति रूप हो जावें सो सुभगनामकर्म है।
३४. जिसके उदय से रूप आदि गुणों से युक्त होने पर भी दूसरों के अप्रीति उत्पन्न हो, बुरा मालूम हो उसे दुर्भग नाम कर्म कहते हैं ।
३५. जिसके उदय से मनोज स्वर की अर्थात् सबको प्यारे लगने वाले शब्द की प्राप्ति हो उसे सुस्वर नाम कर्म कहते हैं।
३६. जिसके उदय से अमनोज्ञ स्वर की प्राप्ति हो, उसे दुःस्वर नाम कर्म कहते हैं । ३७. जिसके उदय से प्रभा सहित शरीर हो उसे आदेय नाम कर्म कहते हैं। ३८. जिसके उदय से शरीर प्रभारहित हो उसे अनादेय नाम कर्म कहते हैं।
३६. जिसके उदय से पुण्यरूप गुणों की ख्याति प्रसिद्धि हो उसे यशः कीर्ति नाम कर्म कहते हैं।
४०. जिसके उदय से पापरूप गुणों की ख्याति हो उसे अयशः कीर्तिनामकर्म कहते हैं।
४१. जिसके उदय से अंग उपांगों को उत्पत्ति हो उसे निर्माणनामकर्म कहते हैं। बह दो प्रकार का है:- १. स्थाननिर्माण, और २. प्रमाण निर्माण । जातिनामक नामकर्म