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________________ १७६ ] तत्वार्थसूत्र जैनाऽऽगमसमन्वय : २. - सचित्तप्रबद्धाहार – सचित्त वस्तु से स्पर्श हुए पदार्थों का आहार करना । ३. अपक्वाहार - अग्नि से न पकाये हुये तथा औषधि आदि मिश्र पदार्थों का खाना । ४. दुपक्वाहार - भलोप्रकार न पके अथवा देर से परिपक्व होने वाले पदार्थों का भोजन करना । ५. तुच्छौषधिभक्षणता - ऐसे पदार्थ को खाना जिसके खाने से हिंसा विशेष होती हो किन्तु उदर पूर्ति न हो सके । सचितनिक्षेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्यका लातिक्रमाः । ७, ३६. महासंविभागस्स पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा तं जहा - सचित्तनिक्खेवण या सचित्तपेहरा. या कालाइकमदाणे परोव एसे मच्छरया । उपा० अध्या० १ अतिथिसंविभागस्य पञ्चातिचाराः ज्ञातव्याः, न समाचरितव्याः, तद्यथा - सचित्त निक्षेपणता, सचित्तपिधानता, कालातिक्रमदानं, परव्यपदेशः, मत्सरता । भाषा टीका - अतिथि संविभाग व्रत के पांच अतिचार जानने चाहियें। किन्तु उन पर ध्याचरण नहीं करना चाहिये । वह यह हैं १. सचित्त निक्षेपणता – न देने की बुद्धि से जल अन्न अथवा वनस्पति यदि में वित्त आहार रखना । २. सचित्तपिधानता छाया सचित्र कमलपत्र आदि से ढक कर आहार को रखना । ३. कालातिक्रमदान - दान देने के काल को उल्लघन करके अकाल में विनती करना । अथवा बीते हुए समय वाली वस्तु का दान करना । ४. परव्यपदेश - न देने को बुद्धि से साधु को अन्य की वस्तु बतला देनी अथवा अन्य की वस्तु का उसकी बिना आज्ञा दान करना ।
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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