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________________ (६९) श्रुते सिंह सुवर्णस्य, पलमानस्य साऽम्बरम् । आचार्याय सुधीर्दद्या-न्मुक्तिः स्याद् भवबन्धनैः ॥ ४ ॥ विधानसहितं सम्यक्, पुराणं फलदं श्रुतम् । तस्माद्विधानयुक्तं तु, पुराणफलमुत्तमम् ॥५॥" भावार्थ-हे आचार्य ! तुम व्यासरूप और विष्णुरूप हो, तुमको नमस्कार है, हे विप्रेन्द्र ! आपके प्रसन्न होने पर मेरे पर सदा शिव प्रसन्न हो जायँगे ॥१॥ ग्रन्थके अंतमें विद्वानोंको बड़ी दक्षिणा देनी चाहिये, फिर वक्ताको प्रणाम कर के अनेक प्रकारसे पूजन कर हाथ और कानोंके भूषण, वस्त्र और सुवर्णसे पूजा करके बुद्धिमान् पूजा समाप्ति के अंतमें वत्स सहित धेनु-गौ प्रदान करें ॥२-३ ॥ इस पुराणके अवगके अंतमें एक सुवर्णका सिंह बनवा कर आचार्यको देवे और वस्त्र भी देवें तो भव वन्धनसे मुक्त जाते हैं ॥ ४॥ विधान सहित अच्छी प्रकार पुराण श्रवण करनेसे फलका देने वाला होता है, इस वास्ते विधान सहित श्रवण करना चाहिये ॥५॥ ___ इस उपरके लेखको वांच कर बुद्धिमान् लोक तुर्त समझ जपने कि पुरापा रचनेवाले ब्राह्मणोंने स्वार्थ सापको ही उद्यम किया है परंतु परलोकमें हमारा क्या हाल होगा ? इस बातका जरा भी ख्याल नहीं किया है, यह शिव पुराणकी किंचिन्मात्र पर्यालोचना लिखी है, विशेष जानने की ईच्छा. वालोंने निष्पक्षपात हो कर खुद शिवपुराण देखना या सुनना, जिससे शिवजीमें देवत्व-परमात्मत्व था या नहीं ? मालूम हो जायगा. अगर पुराणोंसे ब्रह्मा विष्णु और महेशका विचार करते
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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