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________________ सर्वान् कामानवाप्येह, सूर्यलोकं भिनत्ति सः ॥ ८ ॥ सूर्यलोकं च भित्वा स, ब्रह्मलोकं च गच्छति । स्थित्वा कल्पशतान्यत्र, राजा भवति भूतले ॥ ५९॥ अश्वमेधसहस्रस्य, यत्फलं समुदाहृतम् । तत्फलं समवामोति, देवाग्रे यो जपं पठेत् ॥ ६०॥ तस्मात् सर्वप्रयत्नेन, कार्य पुस्तकवाचनम् । इतिहासपुराणानां, शम्भोरायतने शुभे ॥६१ ॥ नान्यत् प्रीतिकरं शंभो-स्तथान्येषां दिवौकसाम् ॥" भावार्थ-देवता नाटकवत् यज्ञोंसे सन्तुष्ट नहीं होते हैं ॥ ५५ ॥ जैसे उपहार पूष्प पूजा और पुस्तक वाचनेसे प्रसन्न होते हैं, विष्णु के स्थानमें जो पुराणादिककी कथा कराता है ।। ५६ ॥ अथवा शिवालयमें पुस्तक वंचवाता है उसके पुण्यका फल सुनो-वो मनुष्य राजसूय और अश्वमेधके फलको प्राप्त होता है । ५७ ॥ इतिहास पुराणों की पुस्तक वांचनेका पुण्य दायक फल है वो सब कामनाओं को प्राप्त होकर सूर्यलोकको भेद करता है ॥ ५८ ।। सूर्यलोकको भेद कर वो ब्रह्मलोकको जाता है, सौ कल्पतक वहां रहकर फिर पृथ्वीमें राजा होता है ॥ ५९ ॥ सहस्र अश्वमेधका जो फल होता है वोही फल महाभारत, अठारह पुराण, विष्णुधर्म, शिवधर्म विषयक जयसंज्ञक ग्रन्थों के पढनेसे होता है ॥ ६ ॥ इस कारण सब प्रयत्नसे पुराणादिककी कथा कहनी चाहिये, इतिहास पुराणोंको शिवजीके सुन्दर मन्दिरमें पढना उचित है ॥ ६१ ॥ इसके समान शिव और अन्य देवताओंकी प्रीतिकारक कोई वस्तु नहीं है ।
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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