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________________ ( ६१ ) कहा कि मित्रवर ! इस विषयकी फिकर मत करो, काम शरु करो, मैं ऐसा कच्चा नहीं जो लोगोंके कहने से दोस्ती तोड लूं, बस बात ही क्या थी !, सुनारने समान आकार के दो कडे एक सोनेका और एक पीत्तलका - तैयार किये, अब एक दिन उसको सच्चा कडा पहीना कर कहा शहेर में और शहर के बहार आसपास स्थानों में फिरना और मेरा नाम लिये बगैर कहना कि यह कडा कैसा है ? गोपालने एसा ही किया, जहां कहीं उसने दिखाया स्वणें परिक्षकोंने उस कडे को सच्चा ही कहा, दूसरे दिन उस सोनारने गोपालको पीतलका कडा पहि नाया और कहा कि कल फिराथा वहां ही आज भी फिर कर- मैं ( पुरुषोत्तम ) ने यह बनाया है ऐसा कह कर पूछना कि यह सच्चा है कि झंडा ? सोनारके कहने जब आहीरने किया, जहां गया वहाँ झूठा है एसा उत्तर मिला मगर व्युद्ग्राहित- उगाकर हठ पकडने वाले गोपालने सबको झूठा माना और मनमें विचारने लगा अहो ! इस वस्ती में कितना द्वेष है, उसके नाम लेनेसे कलजो सच्चाथा वोभी आज झूठा होगया, द्वेषका भी कुछ सुमार है, १ ऐसे सोचता हुआ मित्रके पास आया, और कहने लगाकि मित्र । तुमने मुझसे प्रथम सूचना की सो ठीक किया, नहीं तो यहां के हराम खोर लोग अपनी दोस्तीको तुडा देते ऐसा कह कर पीचलकाही कडा पहिन कर घरपर गया और सब रकम सोनारा पचा गया, बस ऐसाही हाल लोगों का मिथ्याधर्म पोषकोंने किया है, अपने ग्रंथोंमें युक्ति प्रयुक्तिसें भरपुर शुद्ध देव गुरु और धर्मके स्वरुपका दर्शक और मुक्तिर्गके प्रापक
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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