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________________ द्वेष सिवाय किसीपर शस्त्र नहीं चलाया जाता, जिन देवोंकी मूर्तिएं ऐसी हों देव भी ऐसे ही हुए हैं, वरना देखो जिनेश्वर प्रभु परम शांत राग द्वेष रहित हुए हैं, तो उनकी मूर्तिएं भी ऐसी ही शांत बनाइ गई हैं, ऐसे ही दूसरा तत्त्व गुरु है, सो गुरु पूर्ण त्यागी महावतधारीको कबुलना चाहिये नकि घरबारी घोडागाडी मोटर और रेलवे में सेर करनेवाले, पैसे रखने तथा स्त्रीके संगकरनेवाले और लोभसे भरे हुए गुरु कदापि कल्याण नहीं कर सकते हैं, देखो गुरुके विषयमें क्या लिखा हुआ है ?, ___" अवद्यमुक्त पथि य: प्रवर्तते, निवर्तयत्यन्यजनं यः निस्पृहः । __स एव सेव्यः स्वहितैषिणा गुरुः, स्वयं तरस्तारयितुं क्षमः परम् ॥ १॥" मतलब कि-जो निस्पृह गुरु अवद्य-पापमुक्त मार्गमें चलता है और अन्यजनोंको पापमार्गसे हटाता है, अपने हितकी चाहनावाले पुरुषको ऐसे ही गुरुकी सेवा करनी चाहिये जो स्वयं तरता हुआ औरोंको तारता है. इस श्लोकसे यह बात अवश्य ध्यानमें लेनेकी है कि जो गुरु परिग्रह विषय विकार और क्रोधादिसे भरे हुए हैं, वे अपना कल्याण कभी नहीं कर सकते हैं, जब गुरु भी घरबारी और चेला भी घरवारी तो गुरु और चेलेमें फरक क्या हुआ?, देखो- जैन गुरु जमीन पर सोते हैं, पैदल चलते हैं, फल फूल आदि सब वनस्पतिके जीवोंको भी अभयदान दिया है, किसीका उपयोग नहीं करते, अतर आदि पदार्थका
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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