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________________ ( १९ ) दे सकता, इस अंतरायका नाम दानांतराय है, सो भगवान् में न होना चाहिये. २ - दूसरा लाभांतराय जिसमें न हो अर्थात् किसी पदाथेको चाहे और न मिले, इसको लाभांतराय कहते हैं, जैसे रामचंद्रजी सीताजीको चाहते थे, दरख्तोंसे भी पूछते रहे, हाय ! मेरी सीता कहीं 2, उस वख्त उनमें लाभांतराय था, बस, जिसमें यह दूषण हो वह परमात्मा नहीं हो सकता ऐसे ही जिसमें ---- ३ - तीसरा वीर्यांतराय नामका दूषण हो वह प्रभु नहीं, क्यों कि वह अनंतशक्तिवाला होना चाहिये, कोई कार्य उसकी शक्तिके बहार नहीं होता मगर कदापि अनुचित मार्ग में शक्तिको नहीं लगा सकते, ऐसे ही ४ - चोथा दूषण भोगका अंतराय और ५ - पांचवा उपभोगका अंतराय भी जिनमें न होवे, जो कि वे परमात्मा भोगोपभोगकी विशेष सामग्रीसे दूर रहते हैं मगर इनको किसी भी भोग ( एकवार भोग में लेने लायक वस्तु खाद्य पदार्थ और पुष्प वगेरा ) का अंतराय नहीं होता, जिस वस्तुकी इच्छा हो मिल सकती हैं. ऐसे ही कोई भी उपभोग ( वारंवार भोगने लायक चीजें, जैसे आभूषण वस्त्र मकानादि एक रोजके भोगसे नहीं बिगडते मगर वारंवार भोगे जाते हैं ) का अंतराय भी नहीं होता है. श्रावक - साहिब ! प्रभु सर्व पदार्थों का त्यागी हैं, मात्र भचित्त पदार्थ, सो भी क्षुधा वेदनीय समानेके लिये ही जब
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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