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________________ ( १७ ) १- पांचमां विरोध- किसीका भी प्राण लेनेवाला; हिंसक प्राणी कहा जाता है, परमात्माका अवतार हजारों दैत्योंका विनाशक हिंसक क्यों न कहा जाये ? और हिंसकोंकी नरक गति होती है तो वो भी ऐसा पाप करनेवाला नरकगतिमें क्यों न जावे ?, अगर कहा जावे कि अतिपापी जीव होते हैं जिनको परमात्मा मारता है तो फिर कसाईके हाथसे जो जीव मरते हैं उन जीवोंने भी तो ऐसा ही पाप किया है, अन्यथा ऐसे दुःख कभी नहीं सहन करने पडते, क्यों कि जगत्मात्र के जीव जिस वख्त दुःख भोगते हैं उस वरून अवश्य उनके पाप कर्मका उदय होता है यह अटल नियम है, इससे तो कसाईकी भी दुर्गति न होनी चाहिये, अगर जीवोंको दुःख देने से उसकी दुर्गति होती हैं इसमें संदेह नहीं है तो दुःख देनेवाले परमात्माकी भी इसीतरह स्थिति होनी चाहिये, परंतु वस्तुतः यह स्थिति नहीं है, नाही परमात्मा अवतार लेता है और नहीं दुष्टों को बनाता है, सिरफ अपने अपने कर्मानुसार सज्जन दुर्जन उत्पन्न होते ही रहते हैं, और जब दुनिया विशेष दुःखी हो जाती है तब पूर्व के शुद्धसंस्कारों से शुद्ध होते होते कीतनी एक पूर्ण धर्मात्मा उसी जन्म में मुक्तिगामी तीथकरीदि पवित्र व्यक्ति ऐं उन्न होकर उपदेशद्वारा पापीओको भी पवित्र बनाकर जगतुको सुखास्वादका अनुभव कराते है अथवा थोडे जन्मों में मुक्तिगामी कितनी पवित्र व्यक्तिओं के उपदेशसे भी कितना ही सुधारा हो जाता है, ईश्वरको सत्यानाशीका व्यापार करनेकी कुछ जरूरत नहीं रहती है, मतलब ने लोग जिस प्रकारसे अवतार मानते हैं वे सिद्ध नहीं हो सकते हैं, अब इतने विचा 3
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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