SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चिह्न नहीं होते, ज्ञानमें कम नहीं, ऐसे सामान्यकेवली एक कालमें इतने ही होवे ऐसा नियम नहीं है, इस प्रकार अतीत-गयेहुए कालमें अनंत तीर्थकर हो चुके हैं, और अगामी-आनेवाले कालमें अनंत होंगे, इस तरह ईश्वर जीवसे बनते हैं मगर एक अनादि नहीं होता, पद आनादि हैं, इनमेसे चाहें जिसका भजन करो बेडा पार होजायगा. श्रावक-महाराजश्री ! आपका फरमान सत्य है परंतु एक इश्वरवादिओंके मनमें ऐसे समाया हुआ है कि अनेक परमात्मा जगतका आधिपत्य कैसे कर सकते हैं?, एकके हाथमें दुनियाकी लगाम रहे तो ठीक नहीं तो काम नहीं चल सकता, सब मिलकर गरबड कर देंगे और सबसे बडा तो एकहोका होना ठीक है. __ सूरीश्वर-भाई ! प्रथम तो उन लोगोंको जगत्की मायाका काबू परमात्माके हाथमें है, ऐसा विपरीतज्ञान हुआ है, जगत्के किसी भी जंजालमें परमात्माका हाथ नहीं है, जीव अपने कर्मोंसे सुख दुःख स्वयं भोग सकते हैं, अगर ऐसा कोई कहे कि जडकर्म सुख दुःख कैसे दे सकेंगे ?, तो उनको विचारना चाहिये कि जैसे अफीम जड है मगर जो खाता है उसे स्वयं मारता है, तीसरेकी जरुरत नहीं. ऐसे ही जो पुष्टि कारक औषध लेता हैं, वह स्वयं पुष्ट बनाता है, जैसे उपरोक्त जड पदार्थ सुख दुःख स्वयं दे सकते है, ऐसे सब बातें किये हुए कर्मसे बन सकती है, तो फिर ईश्वरको विचमें डालनेसे क्या मतलब?, और जब ईश्वर विचमें होवे तो को करते ही क्यों न रोके ?, जब रोकनेकी शक्ति होवे
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy