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________________ विशेषण लगनेसे ' जज केदारनाथ ' ऐसा नाम प्रसिद्ध हुआ, यहां पर ' वकील ' या 'जज' विशेषणोंके लगनेसे 'बिहारीलाल' या 'केदारनाथ' प्रथमसे सर्वथा भिन्न है ऐसा नहीं कहा जा सकता, इसी तरह अनादिकी अज्ञानताको छोडकर कर्मजंजीरके तोडनेसे ज्वाजल्यमान कैवल्यज्योतिका प्रकाश जिसके अंदर प्रकाशित हो गया है और अनंतशक्ति सम्पन्न परम सुख निधान बनकर जो परमनिर्मल आत्मा हो गया है, ऐसे पवित्र आत्माको परम विशेषण लगानेसे वह परमात्मा कहा जाता है, ऐसे जितने आत्मा बनेंगे वे सब ही परमात्मा कहे जायेंगे, एकही परमात्मा होवे और दुसरे न हो सके ऐसा कभी नहीं हो सकता; और आत्मासे सर्वथा भिन्न ही परमात्मा है ऐसा भी परमसे आगे रहा हुआ आत्मपद साबित नहीं होने देता. श्रावक-साहिब ! आपका कहना युक्तियुक्त है और हो भी ऐसे ही सकता है जैसे दुनिया पुण्यसे अनेक महाराजा होते हैं, ऐसे अनेक परमात्मा भी पवित्रतासे हो सकते हैं एककोही पवित्रताका हक होवे और अन्यको नहीं यह दलील विरकूल वजुद वगरकी है, कारण के दुनिया जैसे एकके शिवाय दुसरा अमुक दरजा नहीं पासकता है, ऐसे कहने पालेका वचन कोई नहीं मान सकता, कारण-जैसे एकने दरजा पाया ऐसेही साधनको पाकर दूसरे भी ऐसा दरजा पा सकते हैं, हाँ इतना जरूर हो सकता है कि कितनेक शक्ति आदि सामग्रीके अभावसे ऐसे नहीं भी बन सकते हैं, परंतु एक ही होवे यह बात ठीक नहीं, कितनेक हो सकते हैं और कितनेक नहीं भी हो सकते, जैसे भव्य और अभव्य के वर्गमें
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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