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________________ एक श्रद्धालु श्रावक विश्वविख्यात जगदुद्धारक शुद्धधर्मप्ररूपक निस्पृहिशिरोरत्न न्यायांभोनिधि युगप्रधानकल श्रीमद्विजयानंदसूरीश्वर पट्टपूर्वाचल सूर्यसमान शासनप्रभावक श्रीमद्-विजयकमलसूरीश्वरजी महाराजके दर्शनार्थ आया हुआ है, मूरिजी अपने पवित्र करकमलसे लेखिनीरूपनली द्वारा आत्मविचारामृतको पुस्तकरूप कुंडमें बहा रहे हैं, इस अपूर्व परोपकारी कार्यमें दत्तचित्त मूरिजी महाराजसे वंदन स्तवन करके श्रद्धालु श्रावक प्रश्न करने लगा. श्रावक-भगवन् ! आप यह क्या पुस्तक लिख रहे हैं? सूरीश्वर-यह इह लौकिक मान प्रतिष्ठाके पाने के लिये और अपनी सुखसे आजीविका चलाने के लिये भव्यजीवोंको मिथ्यात्वकूपमें उतारकर उनके सर्वस्वका हरण करनेवाले प्रपंची जनों के रचे हुए प्रपंचशास्त्रोंकी नोध ले रहा हूं कि जिसके पठनसे कितनेक निष्पक्ष भव्यजीव उस अंधकूपसे बहार निकले. श्रावक-स्वामिन् ! तब तो इसे पुस्तक ही नहीं बल्के उन जीवोंको बहार निकलनेमें असाधारण कारण नोधरूप ग्रंथीवाला रज्जु-गांगेवाला दोरडा भी कह सकते हैं, अच्छा आप महेरबानी करके इसका कुछ हाल मुझे सुना सकते हैं ?. सूरीश्वरजी-तुम पुण्योदयसे शुद्ध शासनके अनुयायियोंमें जन्मे हुए हों इस लिये कुलीन संस्कारसे ही तुम्हारी श्रद्धा शुद्ध तत्त्वोंकी ओर झुकी हुई है, इस लिये तुमको इन बातोंसे इतना विशेष फायदा नहीं जितना सरल मध्यस्थ
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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