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________________ (१८१) भावार्थ-इन तीन लोकोंका विनाश करके और जिस किसीके अन्नको खाता हुआ भी ऋग्वेदको धारण करता ब्राह्मण जरा भी पापसे लिप्त नहीं होता है ॥ २६१ ॥ जहां पर ऐसे ही पापका नाश होना लिखा हो या नया पाप नहीं लगनेका जिकर हो वहां ही अनेक तरहके पापका प्रचार होता है. जैसे कि" पितृणां मासिकं श्राद्ध-मन्वाहार्य विदुर्बुधाः । तच्चामिषण कर्तव्यं, प्रशस्तेन समंततः ॥१२३॥" भावार्थ-पितरोंके मासिक श्राद्धको पंडित जन अन्वहार्य जानते हैं अर्थात्-कहते हैं. इस श्राद्धको सब प्रकारसे श्रेष्ठ मांससे करना ।। १२३ ॥ ___आगे तिसरे अध्यायके २६७ वे श्लोकसे २७२ वे श्लोक तक किस जातिके जानवरों के मांससे पितर कितने महिने तक तृप्त होते हैं और किस जातिसे कितने वर्ष तक, सो पाठ मत्स्यपुराणमें आगे लिख आये हैं उस पाठसे मिलता झुलता है इस लिये नहीं लिखा जाता. १-" तिलैहियवैर्मासै-रद्भिर्मूलफलेन वा। दत्तेन मासं तृप्यन्ति, विधिवत् पितरो नृणाम् ॥ २६७ ॥ द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन, त्रिमासान् हारिणेन तु । औरभ्रणाथ चतुरः, शाकुनेनाथ पंच वै ॥२६८ ॥ षण्मासैश्छागमांसेन, पार्षतेन च सप्त वै। अष्टावेणस्य मांसेन. रौरवेण नवैव तु ॥२६९ ॥
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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