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________________ ( १७३ ) शंकर उस काशीराजाके पुत्र पर प्रसन्न होकर कहने लगे. वर मांग. उस राजकुंवरने वर मांगा कि, मेरे पिताको मारनेवाले जो श्रीकृष्ण हैं उसका वध करनेके वास्ते यह ' कृत्या ' आपके प्रसादसे उठो शंकरने कहा ऐसा ही होगा. ऐसा कहने से वो कृत्या अग्निरूप उठ कर कृष्ण कृष्ण बोलती हुई कृष्णको भस्म करनेके लिये द्वारका में पहुंची. द्वारकावासी लोग घबराकर श्रीकृष्णके शरण में गए. उसी वख्त श्रीकृष्णने सुदर्शन चक्र उस शंकरकी कृत्या उपर फेंका, उसी वख्त वो कृत्या वहांसे पीछेको भागी; और काशीपुरीमें दाखिल हो गई. सुदर्शनचक्र भी उसकी पीछे लगा हुआ गया; तब काशीराजाका सैन्य तथा महादेवजीका प्रमथ गण भीजो शास्त्रास्त्र छोडने में बडा चतुर था-बो सुदर्शनचक्रको पीछा हटानेके लिये सामने आया; परन्तु अग्निकी ज्वालाओंसे जटिल उस सुदर्शनचक्रने काशीराजाके सैन्यको तथा महादेवजी के प्रमथ गणको भी भस्म कर डाला. इस पूर्वोक्त उल्लेख से विदित होता है कि, महादेवजी अनभिज्ञ थें. अन्यथा जान लेते कि, कृत्यासे श्रीकृष्णका वध नहीं होगा; वल्के कृत्याको नाश करनेके वास्ते श्रीकृष्ण चक्र चलावेगा उसके डर से भाग कर कृत्या काशीपुरीमें घुस जायगी और चक्र आकर मेरे प्रथम गण समेत काशीको भस्म करेगा और मेरा दिया हुआ वर भी झूठा हो जायगा. ऐसा नहीं जाना और काशीराजपुत्रको वर दे दिया इससे साफ साबित हुआ कि, शंकर पूरे अनभिज्ञ थे. ऐसे अनभिज्ञ और दया शून्योंकों ये लोग परमात्मा किस तरह कह सकते हैं ?. इसका सत्य उत्तर उन लोगोंका अंतरात्मा देवे और ये
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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