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________________ ( १६७) ठहरता है. " इतो व्याघ्र इतस्तटी" जैसा जहां न्याय हो वहां कल्याण किस तरह हो सकता है?. देखो मत्स्यपुराण २४८ वे अध्यायमें जहां यही न्याय चरितार्थ होता है. ब्रह्माजीके कथनसे दानवोंको साथ मिला कर देवताओंने समुद्रका मथन किया. इस काममें विष्णुजीने सहायता की. इस मथन क्रियासे हजारों ही हाथी वगैरह जानवरोंका नाश होता भया ऐसा जिकर है. इससे या तो मत्स्यपुराणको कुशास्त्र या कृष्णजीमें कुंदेवत्व दो बातोंमेंसे एक बात तो अवश्य कबूल करनी पडेगी. मत्स्यपुराण अध्याय २५० वे में कृष्णजीने मोहिनी रूप बनाकर दैत्योंको ठगकर उनके पाससे अमृत लेकर देवताओंको पिलाया और युद्धमें सुदर्शनचक्र द्वारा हजारों दैत्योंका विनाश किया. इस तरह खून ठगाई वगैरा काम कृष्णजीको उच्च दर्जेवाला साबित नहीं होने देता. भला ! ये शास्त्र ही किस कामके ? जो लोगोंको अनीति सीखावे. इस पुराणके २६० वे अध्यायमें वास्तुकी बलिमें मांस रुधिरका चढाना योग्य समझा गया है. क्या यह अनीति नहीं है ? ... अध्याय १७ वें में श्राद्धमें मांस खानेका उल्लेख है. तथाहि" अन्नं तु सदधिक्षीरं, गोघृतं शर्करान्वितम् ।। मांसं प्रीणाति वै सर्वान् , पितृनित्याह केशवः ॥ ३० ॥ .१ परमात्म पदका अभाव.
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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