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________________ (१६५) मुदिमें भी विषमता उत्पन्न होनेसे पवित्र चारित्रपात्रोंको भी हीन चारित्रपात्र सिद्ध करनेकी उसने कोशीश की है.. अच्छा ! अब यहां ही रखते हैं, आगेका बयान ज्ञानी दृष्टभाव हुआ तो कलरोज सुनानेमें आयगा. " षष्ठ-दिवस.” छ । वे दिन सूरीश्वरजीने जिस समय अपनी नियERVEENNE मित धार्मिक क्रियाओं करके निज स्थानको सुशोमित किया है उसी समय वह धर्मामृतका पिपासु गृहस्थ भी आ पहुंचा और आचार्य भगवान्को वंदन करके यथास्थान बैठा और पूज्यपाद महाराजने भी आपना वक्तव्य शुरू किया. सूरश्विरजी-धर्मके अभिलाषी सद्गृहस्थ ! आगे तुमको ब्राह्मणोंकी स्वार्थदृत्तिके विषयमें सुनाया था, उसमें एक संख्याकी वृद्धि करनेवाला पाठ मत्स्यपुराणका भी सुनाता ई. देखो!. मत्स्यपुराण-अध्याय १९१ पृष्ठ ७२२ वे में सूचित किया है कि" अनाथं दुर्गतं विनं, नावन्तममापि वा । उद्वाहयति यस्तीर्थे, तस्य पुण्य फलं शृणु ।। ३७ ॥ यावत्तद्रोमसंख्या च, तत्प्रसूति कुलेषु च । ताद्वर्षे सहस्राणि, शिवलोके महीयते ॥ ३८ ॥"
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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