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________________ (१३१) अब रोज रोज अन नान याचक कुंबर के हाथसे घायल होने लगे, कितनेक दिन बाद कुंवरसे कोई भी याचक किसी तरहकी बात नहीं करता था. मंत्रीकी अकलने बड़ा ही काम किया; हमेशहका द्रव्य व्यय हट गया और लोहे के गहिनेसे कुंवरजी आनंद मानते रहे. जैसे उस कुंवरको लोहेके गहिने ऐसे ढंगसे दिये गये कि, वह सब गहिनोंसे अपने गहिनोंको उत्तम मानने लगा. इसी तरहसे तालंबाज लोगोंने कल्पितमत रूप पंजरेमें लोगोंको ऐसे फंसा रक्खे हैं कि, जरा भी कोई उनके मतके विषयमें कुछ बोले तुरत राजकुवर जितनी अगर सत्ता हो तो उसके जैसे ही कड़ी सजा देनेको तैय्यार हो जावे; इस्मे जरा भी संदेह नहीं. जब राजपुत्रकी आंखका ईलाज दिव्यौ. पधिसे अगर कोई करे तब वह जान सके कि, हाय ! हाय !! मैं तो लोहा ही उठा फिरा-बस-अन्यधर्मावलंबियोंका भी यही हाल है. इस लिये कोई उच्चज्ञानी सद्गुरु द्वारा अपूर्व ज्ञान औषधिसे विवेक नेत्र खुल जाय तव तो समझ सके कि, जिनेंद्रप्रभुने जगत्के उद्धारके लिये जो परमार्थ मार्ग बतलाया है वो ही सत्य है परंतु जिनके विवेकनेत्र मिथ्या रोगसे बंध है वे तो राजपुत्रको तरह जैन पुस्तकोंको पढ़ कर अगर उसमें उनके मतके वावत कितनीक वास्तविक त्रुटिएं दिखा दी गई हो तो एकदम घबरा उठते हैं और उस परोपलारमय उपदेशका फल सीधे रास्ते पर चल कर नहीं निकालते किन्तु एकदम उस पवित्र धर्मका किसी तरह खंडन करने लग जाते हैं. सिधी रोतिसे न होवे तो नाटक
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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