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________________ (९६ ) मयि मत्ते प्रमत्ते वा, सुप्ते प्रवसिते तथा । यादवाभिभवन् दुष्टा, मा कुर्वन्त्वरयोऽधिकाः ॥ १२ ॥ इति संचिंत्य गोविन्दो, योजनानि महोदधिम् । ययाचे द्वादशपुरी, द्वारकां तत्र निर्ममे ॥ १३ ॥ इस उपरके लेखसे सिद्ध हुआ कि श्रीकृष्ण काल यवनादिकोंसे यादवोंको भय जान कर समुद्रके बीचमें द्वारका नगरी वसावते भये, जब श्रीकृष्ण परमेश्वर और संपूर्ण शक्तिमान् है तो अपनी शक्तिसे काल यवनादिको यादवों का भक्त बना देते कि जिससे सर्व कालयवनादि यादवोंके आधिन हो जातें तो फिर अपनी मथुरानगरी छोड कर द्वारका नगरी क्यों वसानी पडती ?, वास्ते सिद्ध हुआ कि श्रीकृष्ण संपूर्ण शक्तिमान् नहीं थे और नाही परमात्मा थे, क्यों कि सर्व शक्तिमान् परमात्मा किसीसे नाश भाग नहीं कर सकता, अगर कहा जावे कि परमात्माने यह सब लीला की थी, इससे उनके परमात्मपदमें कुछ बार नहीं, तो यह भी कथन महा अज्ञानताका है, क्यों कि जो परमात्मा हो सो किसी तरहकी लीला कर ही नहीं सकता, लीला करना मोही अज्ञानी तथा इन्द्रजालिओंका काम है और ऐसे तो कोई पामर भी कह देगा कि मैं परमात्मा हूं और जब उसके परमात्मा होनेमें विरोध दिखलायेंगे कि तू दरिद्र है, भीख मांग कर पेट भरता है, आज्ञानताका पूतला है, दूसरेसे डरता है, विषय विकारों में मरा पडा है इस लिये तूं परमात्मा नहीं है, तब वो भी कह सकता है कि यह सब मेरी लीला है, मैं बराबर परमात्मा हूं, बस-इस पामरके उत्तर जैसा ही अंधभक्तों का उत्तर है, जो प्रकटतया ब्रह्मा विष्णु महेश आदि देवोमें उन पूर्वोक्त दूष
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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