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________________ 21 तत्त्वार्थसूत्र की पूज्यपाद देवनंदिकृत सर्वार्थसिद्धिवृत्ति में उद्धरण कमलेशकुमार जैन प्रायः कोई भी पुरातन ग्रन्थकार या टीकाकार अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए, उसे प्रमाणित या पुष्ट करने के लिए, दूसरी मान्यता को प्रस्तुत करने के लिए या उसका खण्डन करने के लिए, ग्रन्थ-ग्रन्थान्तरों से अवतरण उद्धृत करता है। इन उद्धरणों में बहुत से ऐसे होते हैं, जो मुद्रित ग्रन्थों में उसी रूप में नहीं मिलते। उनमें पाठान्तर प्राप्त होते हैं। कुछ ऐसे भी उद्धरण पाये जाते हैं जिनका स्रोत अभी तक अज्ञात है। कुछ अवतरण ऐसे भी हैं जो किसी ग्रन्थ या ग्रन्थकार विशेष के नामोल्लेख के साथ तो आते हैं, पर तत्तत् ग्रन्थकारकृत ग्रन्थों में वे उपलब्ध नहीं होते। कई ऐसे भी वाक्य या वाक्यांश मिलते हैं जो ग्रन्थान्तरों से तो लिये गये हैं, परन्तु उनके साथ कोई उपक्रम वाक्य या संकेत (यथा, तथा, उक्तं, यथोक्तं, या तथोक्तं आदि) नहीं होता, इसलिए वे प्रकृत ग्रन्थ के ही अंग बन गये प्रतीत होते हैं। कुछ ऐसे भी उद्धरण, वाक्य या वाक्यांश मिलते हैं, जो प्राकृत से संस्कृत में रूपान्तरित करके ग्रहण किये गये हैं, परन्तु इस तरह के उद्धरणों की संख्या बहुत कम है। तत्त्वार्थसूत्र पर पूज्यपाद देवनन्दि (प्रायः ईसवीय 635-680) विरचित सर्वार्थसिद्धिवृत्ति नामक एक महत्त्वपूर्ण व्याख्या है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार, सर्वार्थसिद्धि (प्रायः ईसवीय 340 के आसपास) तत्त्वार्थसूत्र पर उपलब्ध व्याख्याओं में प्रथम मानी जाती है। स्वयं व्याख्याकार ने इस व्याख्या का नाम सर्वार्थसिद्धि दिया है, और इसे वृत्ति रूप कहा है। इस वृत्ति में भी उक्त प्रकार के बहुत से वाक्य-वाक्यांश, पद्य-पद्यांश या गाथाएँ उद्धृत हैं।
SR No.022529
Book TitleStudies In Umasvati And His Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Tripathi, Ashokkumar Singh
PublisherBhogilal Laherchand Institute of Indology
Publication Year2016
Total Pages300
LanguageEnglish, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_English & Book_Devnagari
File Size23 MB
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