SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उमास्वातिकृत प्रशमरतिप्रकरण : एक अध्ययन 253 हैं, ऐसे शास्त्रविधि के पालक साधुओं को यहीं मोक्ष मिल जाता है। यहाँ पर उमास्वाति सम्भवतः प्रशम सुख को ही मोक्ष सुख के रूप में प्रकट कर रहे हैं, क्योंकि उससे मोक्षसुख का अंशतः अनुभव किया जा सकता है। प्रशमसुख की महिमा का वर्णन करते हुए उन्होंने कहा है कि सम्यग्दृष्टि और सम्यग्ज्ञानी व्रत एवं तपोबल से युक्त होकर भी यदि उपशान्त नहीं है तो वह उस गुण को प्राप्त नहीं करता जिसे प्रशम सुख में विद्यमान साधु प्राप्त कर लेता है। उमास्वाति कहते हैं कि स्वर्ग के सुख परोक्ष हैं तथा मोक्ष के सुख अत्यन्त परोक्ष हैं, प्रशम का सुख प्रत्यक्ष है वह पराधीन नहीं है और न ही वह विनाशी है स्वर्गसुखानि परोक्षाण्यत्यन्तपरोक्षमेव मोक्षसुखम्। प्रत्यक्षं प्रशमसुखं न परवशं न व्ययप्राप्तम्।। –प्रशमरतिप्रकरण, 237 सन्दर्भ 1. तत्त्वार्थसूत्र, पं. सुखलाल संघवी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, 1993, प्रस्तावना पृ. 18 । 2. जैन साहित्य का इतिहास, भाग 2, श्री गणेशप्रसादवर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी, प्रथम संस्करण, पृ. 375। 3. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 4, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, पृ. 267। 4. तत्त्वार्थसूत्र, प्रस्तावना, पृ. 29, पादटिप्पण 1। 5. प्रशमरतिप्रकरण, हारिभद्रीय टीका एवं अवचूरि सहित, श्री परमश्रुत ___ प्रभावक मण्डल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास, द्वितीयावृत्ति विक्रम संवत् 2044, परिशिष्ट 1। 6. वही, कारिका 2। 7. वही, कारिका 171 8. वही, कारिका 1401 9. वही, 141। 10. वही, 144। 11. वही, 1461 12. वही, कारिका 260-2।
SR No.022529
Book TitleStudies In Umasvati And His Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Tripathi, Ashokkumar Singh
PublisherBhogilal Laherchand Institute of Indology
Publication Year2016
Total Pages300
LanguageEnglish, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_English & Book_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy