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________________ तत्त्वार्थसूत्र में निर्जरा की तरतमता के स्थान : एक समीक्षा 227 उमास्वाति ने इन नामों का उल्लेख संयत के विशेषण के रूप में किया है। अतः इन नामों को देखकर यह कहा जा सकता है कि उमास्वाति के समय तक गुणस्थान सिद्धान्त पूर्ण रूप से विकसित नहीं था, पर उसकी मान्यता बीज रूप में प्रचलित हो रही थी। निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि सैद्धान्तिक दृष्टि से गुणश्रेणी विकास की अवस्थाएं एवं गुणस्थान-इन दोनों का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। गुणश्रेणी विकास की अवस्थाएं निर्जरा की तरतमता बताने वाले स्थानों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करती हैं पर वे अवस्थाएं क्रमिक ही हों, यह आवश्यक नहीं है, पर गुणस्थानों में आत्मा की क्रमिक उज्ज्वलता का दिग्दर्शन है। अतः वहाँ उत्तरोत्तर क्रमिक अवस्थाओं का वर्णन है। सन्दर्भ 1. सम्यग्दृष्टि श्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोह -क्षपकक्षीण- मोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः - तत्त्वार्थसूत्र, 9/47। 2. भद्रबाहु प्रथम को नियुक्तिकार न मानने का एक प्रबल तर्क यह उठाया जाता है कि यदि चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु नियुक्तिकार होते तो दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति की प्रथम मंगलाचरण की गाथा में स्वयं को वन्दना कैसे करते इस तर्क का समाधान यह है कि दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति में मंगलाचरण की गाथा पंचकल्पभाष्य से बाद में प्रक्षिप्त हुई है, क्योंकि वहां इस गाथा की विस्तृत व्याख्या मिलती है। प्राचीन काल में मंगलाचरण की परम्परा नहीं थी। जिस प्रकार उमास्वाति ने 'सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्राणि-मोक्षमार्गः' से तत्त्वार्थसूत्र का प्रारम्भ किया, वैसे ही नियुक्तिकार भद्रबाहु ने पंचज्ञान के वर्णन को ही मंगल के रूप में प्रस्तुत किया है। दशवैकालिक और आचारांग नियुक्ति में जो मंगलाचरण की गाथाएं हैं, वे चूर्णि में व्याख्यात एवं उल्लिखित नहीं है। इससे स्पष्ट है चूर्णिकार के समय तक इन नियुक्तियों में मंगलाचरण की गाथाएं नहीं थीं, बाद में ये किसी आचार्य या व्याख्याकारों द्वारा प्रक्षिप्त हुई हैं। भद्रबाहु द्वितीय या दूसरे आचार्यों द्वारा नियुक्तियों में परिवर्धन किया गया-इस तथ्य को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि ऐतिहासिक दृष्टि से अनेक प्रसंग भद्रबाहु प्रथम के बाद के हैं। 3. सम्मत्तुप्पत्ती सावए य विरए अणंतकम्मसे। दसणमोहक्खवगे, उवसामंते य उवसंते।। खवगे य खीणमोहे, जिणे य सेढी भवे असंखेज्जा। तव्विवरीतो काले, संखेज्जगुणाए सेढीए।। -आचारांग नियुक्ति, गा. 223-41
SR No.022529
Book TitleStudies In Umasvati And His Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Tripathi, Ashokkumar Singh
PublisherBhogilal Laherchand Institute of Indology
Publication Year2016
Total Pages300
LanguageEnglish, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_English & Book_Devnagari
File Size23 MB
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