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________________ तत्त्वार्थसूत्र में निर्जरा की तरतमता के स्थान : एक समीक्षा 225 टीकाकार ने बताई हैं, जिनमें क्रमशः पूर्ववर्ती की अपेक्षा उत्तरवर्ती अवस्था में असंख्यात गुणा अधिक निर्जरा होती है - 1. धर्मपृच्छा के इच्छुक 2. धर्मपृच्छा में संलग्न 3. धर्म को स्वीकार करने के इच्छुक 4. धर्मक्रिया में संलग्न 5. पूर्वप्रतिपन्न धार्मिक नियुक्तिकार ने काल की दृष्टि से भी निर्जरा की तरतमता का संकेत दिया है। किन्तु काल की दृष्टि से इसमें क्रम विपरीत हो जाता है। शीलांक इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि एक अयोगी केवली जितने काल में जितने कर्म क्षय करता है, उतने कर्म एक सयोगी केवली उससे संख्येय गुणा अधिक काल में क्षय करता है। इसी प्रकार सयोगी केवली जितने काल में जितना कर्म क्षय करता है, उतना कर्म क्षीणमोह उससे संख्येय गुण अधिक काल में क्षय करता है। काल की संख्येय गुणा वृद्धि प्रतिलोम क्रम से चलती है। इन दस अवस्थाओं को देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार का मुख्य उद्देश्य निर्जरा की तरतमता बताने वाली तथा मोक्ष के सम्मुख ले जाने वाली अवस्थाओं का वर्णन करना था, न कि विकास की भूमिका पर क्रमिक आरोहण करने वाली भूमिकाओं का वर्णन करना। यह सत्य है कि हर पूर्ण अवस्था की अपेक्षा उत्तर अवस्था में असंख्यात गुणा अधिक निर्जरा है, पर ये अवस्थाएं क्रमिक ही आएं, यह आवश्यक नहीं है। फिर भी यह कहा जा सकता है कि सम्यक्त्व की प्राप्ति मोक्ष का प्रथम सोपान है और जिन-सर्वज्ञ होने के बाद व्यक्ति कृतार्थ हो जाता है फिर उसके लिए कुछ भी करणीय शेष नहीं रहता। विद्वानों ने इन दस अवस्थाओं को गुणस्थान विकास की पूर्वभूमिका के रूप में स्वीकार किया है। डा. सागरमल जैन ने विस्तार से इस सन्दर्भ में चिन्तन किया है। लेकिन सैद्धान्तिक दृष्टि से यदि गुणस्थानों के साथ इन अवस्थाओं की तुलना करें तो संगति नहीं बैठती है। प्रथम तीन गुणस्थानों का इन दस अवस्थाओं में कहीं भी समाहार नहीं है। गुणस्थान विकास की दृष्टि से विरत के बाद अनन्तवियोजक की स्थिति आए, यह आवश्यक नहीं है। गुणस्थान सिद्धान्त की दृष्टि से यह स्थिति अविरतसम्यग्दृष्टि अर्थात् चौथे गुणस्थान में भी प्राप्त हो सकती है। चौथे गुणस्थान में गुणश्रेणी विकास की प्रथम, चतुर्थ और पंचम इन तीन अवस्थाओं का समावेश हो सकता है क्योंकि चौथे गुणस्थान में भी व्यक्ति
SR No.022529
Book TitleStudies In Umasvati And His Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Tripathi, Ashokkumar Singh
PublisherBhogilal Laherchand Institute of Indology
Publication Year2016
Total Pages300
LanguageEnglish, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_English & Book_Devnagari
File Size23 MB
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