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________________ तत्त्वार्थसूत्र में आत्मा सम्बन्धी तत्त्व 219 तिर्यंच और नारक ।'' आत्मा अपने शुभ अशुभ कर्मों के अनुसार इन योनियों में जन्म लेती है। शुभ कार्य करता है तो देव या मनुष्य योनियों में और अशुभ कर्म करता है तो तिर्यंच या नारकीय योनि में जन्म लेता है। प्राणी का भविष्य वर्तमान के आचरण पर निर्भर करता है। आधुनिक जीववैज्ञानिक समानताओं के सिद्धान्त को उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र के परस्परोपग्रहो जीवानाम्" में स्पष्ट किया है? प्रत्येक सांसारिक जीवद्रव्य का कार्य एक दूसरे की सहायता करना है। कोई भी जीव अकेला स्वतन्त्रता पूर्वक सत्ता में नहीं रह सकता । प्रत्येक जीव एक दूसरे पर आश्रित हैं। एक दूसरे का सहयोग अत्यावश्क है। आत्मा स्वदेहपरिमाण वाला है और उसके प्रदेश असंख्यात हैं। 17 एक परमाणु जितने आकाश को घेरता है उसे एक प्रदेश कहते हैं। इन्हीं असंख्यात प्रदेशों से युक्त आत्मा अखण्ड द्रव्य है। आत्मा अणु भी है और विभु भी। सूक्ष्म इतना है कि एक आकाश प्रदेश के अनन्तवें भाग में समा सकता है और विभु इतनी कि समग्र लोक में व्याप्त है। संकोच व विस्तार गुण के कारण एक हाथी में रहने वाला आत्मा, जब चीटी के शरीर में प्रवेश करता है तब संकुचित हो जाता है जैसे दीपक का प्रकाश छोटे कमरे में भी व्याप्त रहता है और बड़े कमरे में भी। ठीक उसी प्रकार आत्मा शरीर के परिमाण के साथ घटता-बढ़ता है। ज्यों-ज्यों शरीर की वृद्धि होती है, आत्मा का परिमाण भी बढ़ता है। शरीर रहित आत्मा आकाशमें किस भाग में रहता है ? तत्त्वार्थसूत्र के अन्तिम दसवें अध्याय में उमास्वाति कहते हैं ' तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्या लोकान्तात् " सम्पूर्ण कर्मों के क्षय होने के बाद आत्मा सीधी ऊर्ध्वगति करता है और लोक के अग्र भाग में जाकर ठहर जाता है। जैसे कि तुम्बी अगर अपनी वस्तुओं से भारी नहीं कर दी गयी हो तो सीधी पानी की ऊपरी सतह पर आ जाती है। इसी प्रकार कर्म-बन्धन के दूर होते ही जीव भी ऊर्ध्वगामी बन लोक के अग्र भाग में स्थिर हो जाता है। यही आत्मा की श्रेष्ठतम अवस्था है । उमास्वाति तत्त्वार्थसूत्र में जिसको प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। सन्दर्भ 1. तत्त्वार्थसूत्र, विवेचक पं. सुखलाल संघवी, पार्श्वनाथविद्यापीठ, वाराणसी, तृ. सं. 1993, अध्याय 1 / सूत्र 5 | 2. भगवतीसूत्र, 1/9।
SR No.022529
Book TitleStudies In Umasvati And His Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Tripathi, Ashokkumar Singh
PublisherBhogilal Laherchand Institute of Indology
Publication Year2016
Total Pages300
LanguageEnglish, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_English & Book_Devnagari
File Size23 MB
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