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________________ सूत्रकृतांग में परमतानुसारी आत्म-स्वरूप की मीमांसा करते हुए शीलांकाचार्य कहते हैं कि जिस प्रकार पाँच स्कन्धों से पृथक् आत्मा को स्वीकार न करने पर यह समस्या उत्पन्न होती है कि सुख-दुःख आदि कर्मफल का अनुभव कौन करता है, वही समस्या इस चातुर्धातुकवाद में भी उत्पन्न होती है। नियतिवाद की मान्यता है कि दुःख-सुख स्वयंकृत नहीं हैं और न अन्यकृत हैं, इनकी प्राप्ति सांगतिक है अर्थात् नियति से होती है। नियतिवाद में नियति ही एक मात्र कारण है। मंखलि गोशालक के इस मत में आत्मा का स्वातन्त्र्य समाप्त हो जाता है तथा कर्म-सिद्धान्त की व्यवस्था भी ढह जाती है। इस व्यवस्था में पुरुषार्थपूर्वक दुःखों से मुक्ति का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, अतः आत्मा को ही अपने सुख-दुःख तथा बन्धन एवं मोक्ष के लिए उत्तरदायी मानना चाहिए। उपसंहार जैनदर्शन के अनुसार आत्मा में ज्ञान एवं दर्शन ये दो गुण प्रमुख हैं, क्योंकि इनसे ही चेतना का बोधरूप व्यापार ‘उपयोग' संभव होता है। इसलिए 'उपयोगो लक्षणम्' (तत्त्वार्थसूत्र 2.8) सूत्र के द्वारा आत्मा का लक्षण उपयोग स्वीकार किया गया है। जैन दर्शन में आत्मा को शरीर, इन्द्रिय, मन एवं बुद्धि से पृथक् प्रतिपादित किया गया है। यद्यपि आत्मा के साथ इनका कर्म के कारण घनिष्ठ सम्बन्ध है, तथापि आध्यात्मिक दृष्टि से इनसे आत्मा के शुद्ध स्वरूप को पृथक् अंगीकार किया गया है। शरीर आदि में चेतना का अनुभव हमें आत्मा के संयोग से ही होता है। इसलिए भ्रमवश कुछ दार्शनिक शरीर को ही आत्मा मान लेते हैं। यह उनका अधूरा एवं स्थूल ज्ञान है। जैनदर्शन में आत्मा की विशेषताओं को अग्रांकित गाथा में व्यक्त किया जा सकता है जीवो उवओगमओ, अमुत्तीकत्तासदेहपरिमाणो। भोत्ता संसारत्थो सिद्धो, सो विस्ससोड्ढगई। (जीव उपयोगमय है, अमूर्तिक है, कर्ता है तथा स्वदेहपरिमाण है। वह भोक्ता है। उसके दो प्रकार हैं-संसारस्थ एवं सिद्ध। वह स्वभावतः ऊर्ध्वगति वाला है।) 'जीव' एवं 'आत्मा' शब्द के प्रयोग को लेकर कई बार मतभेद दिखाई देते हैं। किन्तु जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो इन दोनों शब्दों का प्रयोग समान अर्थ में ही हुआ है। 'अतति सततं गच्छति इति आत्मा' अर्थात् जो सदैव विभिन्न गतियों में
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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