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________________ जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन सकती हैं। इसी प्रकार पृथ्वी आदि पंचभूतों की नित्यता स्वीकार करने पर उनसे घट आदि वस्तुओं का निर्माण नहीं हो सकेगा। जल एवं वायु एक स्थान से दूसरे स्थान पर गति नहीं कर सकेंगे। अग्नि की लपटें ऊर्ध्व गमन नहीं कर सकेंगी व चारों ओर भी नहीं फैल सकेंगी। अनात्मवाद एवं उसका खण्डन बौद्ध दार्शनिक आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं मानते। वे इसे पंचस्कन्धों से जन्य स्वीकार करते हैं। वहां चेतना को प्रवाही विज्ञान के रूप में स्वीकार किया गया है। बौद्ध मत क्षणिकवादी भी है। इस मत को सूत्रकृतांग की निम्न गाथा में प्रस्तुत किया गया है 66 पंच खंधे वयं तेगे, बाला उखणजोइणो । अन्न अन्नो वाऽऽहु, हेउयं च अहेउयं । । " (वस्तु को क्षणिक मानने वाले कुछ अज्ञानी पांच स्कन्ध का प्रतिपादन करते हैं। वे आत्मा को पांच स्कन्धों से न भिन्न मानते हैं और न अभिन्न । वे इसे सहेतुक अर्थात् स्कन्धों से उत्पन्न अथवा निर्हेतुक अर्थात् अनादि अनन्त भी नहीं मानते हैं।) बौद्ध मत में पांच स्कन्ध प्रतिपादित हैं- रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार। इन पांच स्कन्धों से सर्वथा भिन्न आत्मा नाम का कोई पदार्थ नहीं है। इनमें से पृथ्वी और पार्थिव रूप वस्तुएँ 'रूप-स्कन्ध' के अन्तर्गत समाविष्ट होती हैं। सुख-दुःख और उनके अभाव का अनुभव 'वेदना - स्कन्ध' के अन्तर्गत आता है। रूपज्ञान, रसज्ञान आदि का ज्ञान 'विज्ञान - स्कन्ध' के अन्तर्गत समाविष्ट होता है। घट, पट आदि संज्ञाओं का ज्ञान 'संज्ञा - स्कन्ध' से होता है। पुण्य-पाप आदि वासनाओं का समुदाय 'संस्कार - स्कन्ध' है। आत्मा यानी चेतना इन पंच स्कन्धों का समुदाय रूप ही होता है। इनसे भिन्न आत्मा नामक पदार्थ मानने में प्रमाण का अभाव है। प्रत्यक्ष एवं अनुमान दोनों प्रमाणों से आत्मा की पृथक् सिद्धि नहीं होती । चक्षु आदि इन्द्रियों से आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता तथा अनुमान प्रमाण से उसका ज्ञान करने के लिए कोई निर्दोष हेतु उपलब्ध नहीं है। बौद्ध दर्शन में प्रत्यक्ष एवं अनुमान के अतिरिक्त कोई प्रमाण नहीं माना गया है, जिससे साध्य की सिद्धि की जा सके। 12 42
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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