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________________ जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन भूतों से चेतना की उत्पत्ति उसी प्रकार अंगीकार करता है जिस प्रकार जौ, गुड़, महुआ आदि पदार्थों के संयोग से बनने वाली मदिरा में मद शक्ति उत्पन्न हो जाती है। चार्वाक मत का कथन है कि पृथ्वी आदि पंच महाभूतों के शरीर रूप में परिणत होने पर इन्हीं भूतों से शरीर में चैतन्य उत्पन्न हो जाता है। सूत्रकृतांग की निम्नांकित गाथाओं में चार्वाक दर्शन की इसी मान्यता का निरूपण हुआ है संतिपंचमहब्भूया, इहमेगेसिमाहिया। पुढवीआऊतेऊवा, वाऊआगासपंचमा। एते पंचमहब्भूया, तेब्भोएगोत्तिआहिया। अह तेसिंविणासेणं, विणासो होइ देहिणो।' (किन्हीं के द्वारा पांच महाभूत कहे गए हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। इन पांच महाभूतों से एक चैतन्य अथवा आत्मा उत्पन्न होता है और इन पंच महाभूतों के विनाश होने पर उस देही आत्मा का विनाश हो जाता है।) चार्वाक अथवा लोकायतिक परम्परा में पुनर्जन्म एवं नरक-स्वर्ग आदि की परिकल्पना नहीं है। उनके अनुसार इस जीवन में प्राप्त होने वाला दुःख ही नरक है तथा यहाँ मिलने वाला सुख ही स्वर्ग है। लोक में कोई नरक-स्वर्ग नहीं है। इस शरीर का उच्छेद होना ही मोक्ष है। 'मैं मोटा हूँ', 'मैं दुबला हूँ', 'मैं काला हूँ' आदि अनुभवयुक्त कथन भी इंगित करते हैं कि चेतना शरीर रूप ही है। यह मेरा शरीर है इस प्रकार का व्यवहार औपचारिक है। ___ लोकायतिकों की एक अन्य मान्यता के अनुसार पाँच नहीं, अपितु पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार भूतों के मिलने से चैतन्य की उत्पत्ति होती है ___अत्र चत्वारि भूतानिभूमिवार्यनलानिलाः। चतुर्थ्यः खलुभूतेभ्यश्चैतन्यमुपजायते।। (यहाँ चार भूत हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु। इन चार भूतों से चैतन्य उत्पन्न होता है।) यहां पर यह कहना उचित होगा कि चार्वाक-दर्शन प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है। आकाश में किसी प्रकार का वर्ण या रूप नहीं होता। इसका चक्षु आदि इन्द्रिय के द्वारा प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। इसलिए यह सम्भव है कि चार्वाकों की एक परम्परा ने आकाश को भूत स्वीकार करने का निषेध कर दिया हो
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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