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________________ 38 जैन धर्म-दर्शन: एक अनुशीलन परिवर्तन। इनमें कर्मबन्ध के योग्य पुद्गलों को जब कोई जीव ग्रहण करता है तथा फिर निर्जरित कर पुनः नये पुद्गल ग्रहण करता है, इस क्रम से जब वह समस्त पुद्गलों को ग्रहण कर छोड़ देता है तथा पुनः उन्हीं गृहीत पुद्गलों को ग्रहण करने लगता है तो एक कर्मद्रव्य परिवर्तन पूर्ण होता है। इस प्रक्रिया में अनन्त काल व्यतीत होता है। जब यह जीव शरीर, पर्याप्ति आदि के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता हुआ एवं छोड़ता हुआ समस्त नोकर्म द्रव्यपुद्गलों को ग्रहण कर छोड़ देता है तो उसे एक नोकर्मद्रव्य परिवर्तन कहते हैं। इस प्रकार जीव का कर्मद्रव्य परिवर्तन के रूप में एवं नोकर्मद्रव्य परिवर्तन के रूप में संसरण चलता रहता है । क्षेत्र का तात्पर्य है लोकाकाश । जब कोई जीव आकाश के प्रत्येक प्रदेश को क्रमशः अपना जन्म क्षेत्र बनाकर छोड़ देता है तो इसे एक क्षेत्रपरिवर्तन कहते हैं । लोक में ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जहाँ यह जीव अपनी अवगाहना से बहुत बार उत्पन्न न हुआ हो, कालपरिवर्तन को स्पष्ट करते हुए पूज्यपाद देवनन्दी कहते हैं- “कोई जीव उत्सर्पिणी के प्रथम समय में उत्पन्न हुआ एवं अपनी आयु समाप्त होने पर मर गया। पुनः वही जीव द्वितीय उत्सर्पिणी के दूसरे समय में उत्पन्न हुआ एवं आयु पूर्ण होने पर मृत्यु को प्राप्त हो गया। पुनः वही जीव तीसरी उत्सर्पिणी के तृतीय समय में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार इस क्रम से उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी काल पूर्ण किया। जन्म एवं मरण दोनों से इस प्रकार उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी के सब समय पूर्ण हो जायँ तो इसे एक कालपरिवर्तन कहते हैं। यह जीव उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी काल के सब समयों में अनेक बार जन्मा एवं मरा है। भवपरिवर्तन के अन्तर्गत नरक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देवभव की सब आयुष्यों के प्रत्येक समय में उत्पत्ति एवं मरण को प्राप्त होने पर एक भव परिवर्तन कहा गया है। इस जीव ने मिथ्यात्व के कारण नरक से लेकर ग्रैवेयक तक अनेक बार परिभ्रमण किया है । भावपरिवर्तन का सम्बन्ध कषाय अध्यवसाय स्थानों एवं योगस्थानों से है। इनमें जब जीव षट्स्थान हानि एवं वृद्धि के द्वारा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग एवं प्रदेशबन्ध के सब स्थानों को * अनन्तभागवृद्धि, असंख्येयभागवृद्धि, संख्येयभागवृद्धि, संख्येयगुणवृद्धि, असंख्येयगुणवृद्धि एवं अनन्तगुणवृद्धि-ये छह वृद्धि स्थान हैं। इनके विपरीत अनन्तभागहानि, असंख्येयभागहानि, संख्येयभागहानि, संख्येयगुणहानि, असंख्येयगुणहानि एवं अनन्तगुणहानि- ये छह हानि स्थान हैं।
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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