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________________ जैन आगम-परम्परा एवं निगम-परम्परा में अन्तःसम्बन्ध 479 न हास्यं न लास्यं न गीतादि यस्य। न नेत्रे न गात्रे न वक्त्रे विकारः स एकः परात्मा गतिमें जिनेन्द्रः ।।" तीर्थङ्कर महावीर के न गौरी है, न गंगा है और न कोई लक्ष्मी है जो उनके शरीर, शिर या छाती से आलिंगन करती हो । इच्छा से विमुक्त उनको तो शिवश्री वरण करती है, वही परमात्मा जिनेन्द्र मेरे शरण्य हैं । न उनके शूल है, न धनुष है, न हाथ में चक्र आदि हैं, न हास्य है, न लास्य है, न गीत आदि हैं, न नेत्र में विकार है, न शरीर में और न मुख पर । ऐसे परमात्मा जिनेन्द्र ही मेरे शरण्य हैं । इस प्रकार वैदिक परम्परा के शिव से तीर्थकर महावीर का शिव स्वरूप भिन्न है। ___ अर्हत तीर्थकर 18 दोषों से रहित होते हैं, वे दोष हैं- 1. जुगुप्सा 2. भय 3. अज्ञान 4. निद्रा 5. अविरति 6. काम 7. हास्य 8. शोक 9. द्वेष 10. मिथ्यात्व 11. राग 12. रति 13. अरति 14. दानान्तराय 15. लाभान्तराय 16. भोगान्तराय 17. उपभोगान्तराय 18. वीर्यान्तराय । यक्ष-यक्षियों एवं देव-देवियों को स्थान जैनागमों में किसी भी तीर्थङ्कर के किसी यक्ष एवं यक्षी का विवेचन नहीं मिलता है, किन्तु उत्तरवर्ती वाङ्मय में प्रत्येक तीर्थङ्कर के साथ यक्ष एवं यक्षी को योजित किया गया है। यह वैदिक प्रभाव तो है ही, नैगमिक आगमों का प्रभाव भी है । प्रत्येक तीर्थकर के यक्ष एवं यक्षियों के नाम इस प्रकार हैं तीर्थकर यक्ष यक्षी 1. ऋषभदेव गोमुख चक्रेश्वरी, अप्रतिचक्रा अजितनाथ महायक्ष अजिता, रोहिणी सम्भवनाथ त्रिमुख दुरितारी, प्रज्ञप्ति अभिनन्दन यक्षेश्वर कालिका, वज्रशृंखला सुमतिनाथ लुम्बरु महाकाली, पुरुषदत्ता पद्मप्रभ कुसुम, पुष्प अच्युता, मानसी सुपार्श्वनाथ मातंग शान्ता, काली
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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